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________________ चंपक वरणी, सुर मनहरणी, चंद्रमुखी शृंगार धरी ताल मृदंग बंसरी मंडल, वेणु उपांग धुनि मधुरी....जिन...." यहाँ शृंगार-रस और शांत-रसके अद्भूत संयोजनसे जो अंतरमें भाव तरंगोकी लहरें उठती हैं वह रसागारमें तराबोर कर देती है। जैसे कवि हमें देवविमानमें होनेवाले नृत्य दृश्यका तादृश दर्शन कराते है। इससे आगे बढकर अन्य रचनामें नृत्य नाटिका जैसे साकार होती है “नाचत सुर वृंद छंद, मंगल गुन गा री.... कुमर कुमरी कर संकेत, आठ शत मिल भ्रमरी देत; मंद्र तार रणरणाट, धुंघरू पगधारी....नाचत.... बाजत जिहां मृदंग ताल, धपमप धुधुम किट धमाल; रंग चंग दंग द्रंग त्रों त्रों त्रिक तारी....नाचत.... तता थेइ थेइ तान लेत, मुरज राग रंग देत; तान मान गान जान, किट नट धुनिधारी...." ६९ परमात्माके आठ अतिशयोंमें एक हैं पंचवर्णी पुष्पवृष्टि। इस पुष्पवर्षाका सजीव शब्दचित्र "अडिल' छंदमें प्रस्तुत है- “फूल पगर अति चंग रंग बादर करी, परिमल अति महकंत मिले नर मधुकरी । जानुदघन अति सरस विकच अधो बीट हैं, बरसे बाधा रहित रचे जिम छिंट है...." ७० कामदेवके बाण समान और शृंगारके साधन रूप सुविकसित-सुवासित पुष्पाच्छादित लतायें और क्यारियोंसे सजे उपवनकी शोभाका हूबहू वर्णन करके आचार्यदेवने उपदिष्ट किया है कि इनको जिन चरणोंमें समर्पित करनेसे फलप्राप्ति है, उन कामबाणोंकी पीड़ासे मुक्ति प्राप्ति..... “अर्हन जिणंदा प्रभु मेरे मन वसिया.... मोगर लाल गुलाब मालती, चंपक केतकी निरख हरसीया....अर्हन्.... कुंद प्रियंगु वेलि मचकुंदा, बोलसिरी, जाई अधिक दरसीया....अर्हन्.... जल थल कुसुम सुगंधी महके, जिनवर पूजन जिम हरि रसीया....अर्हन्.... पंचबाण पीड़े नहीं मुझको, जब प्रभु चरणे फूल फरसीया....अर्हन्...." " ऐसे अनेक कलात्मक निरूपण इनके काव्योमें कदम कदम पर मिलते हैं। प्रभविष्णुता उसमें है कि, ये रचनायें प्रभूत भावप्रवाहोंमें अवगाहन करते करते स्वतः ही प्रवाहित होती रही हैं । भावात्मकताः-इनमें दृष्टिगोचर होते हैं सैद्धान्तिक-दार्शनिक-तात्त्विक भाव निरूपणः प्राकृतिक-मानवीय-मानवेतर सृष्टिके आलंबनोंसे-प्रतीकोंसे-बिम्ब योजनाओंसे परमेश्वरके अनंतानंत गुणगान; देवाधिदेवके विविध स्वरूप गानः स्वात्माके अवगुण प्रकटीकरण एवं अज्ञों-बाल-हृदयभक्तों व सुज्ञजनोंको (स्व आत्माको निमित्त बनाकर) संबोधन, विशेषतः उपदेशक रूपमें उद्बोधनः प्रतिमा पूजनके विरोधियों और मूर्ति उत्थापकोंको हितशिक्षा, साथसाथमें परमात्माकी विविध रूपमें भक्ति पद्धतिः परमात्माको आत्म समर्पण-सेवक भावसे और सख्य भावसे, कहीं बालक बनकर तो कहीं पर प्रियतमा बनकर। कहीं कहीं मिलते हैं वीतरागको दिए गए मीठे उपालंभ और उलाहनायें। जैसे- प्रथम तीर्थपति श्री ऋषभदेवके स्तवनमें“शत सुत माता सुता सुहंकर, जगत जयंकर तुं कहीये, निज जन तार्ये होंसे अंतर रखना ना चइये.... मुखडा भींचके बेसी रहना, दीन दयालको ना घइये, हम तन मन ठारो, वचनसे सेवक अपना कह दइये...." क्योंकि श्रीआदिनाथके सौ पुत्र-दोपुत्री-माता-सकल परिवार मोक्षमें गया और हम अकेले रह जायें! और फिरभी प्रभु आँख मूंद कर चूपचाप बैठे ही रहें-यह बात कैसे सही जाय !! इस लिए आगे चलकर कहाँतक अधिकार जताते हैं“अवगुण मानी परिहरशो तो, आदि गुणी जग को कहीये; जो गुणीजन तारे, तो तेरी अधिकता क्या कहीये?"७२ उलाहनामें भी कैसा दमदार-शोखी भरा भाव है?! गुणवानको तारना सहजता है, विशिष्टता किसमें? अवगुणीको तारो! पढ़कर-सुनकर मन प्रमोद भावसे भर जाता है। लगता है जैसे दीनदयाल वीतरागदेव अभी दाता बनकर बरस पडेंगे, और हम न्याल हो जायेंगें। कभी कभी, कहीं कहीं पर शब्दोंकी तोड़-मरोड़के कारण भाषामें थोडीसी क्लिष्टता आ जाती है, (53) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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