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________________ शुक्ल (तीन शुभ) । 'ध्यानस्वरूप में आचार्य प्रवरश्रीने आर्तध्यानी और रौद्रध्यानी योग्य तीन अशुभ एवं धर्मध्यानी और शुक्लध्यानीके समीचीन तीन शुभ लेश्याळी प्ररूपणा इसप्रकार की है “ राग द्वेष मोह भर्यो, आरतमें जीव पर्यो, बीज भयो जगतरु मन भयो आंध रे; किसन कपोत नील लेसा भइ मध मही, उतकृष्ट जगनमें एक ही न सांध रे।” “पीत पउम ने सुक्क है, लेस्या तीन प्रधान । सुद्ध सुद्धतर सुद्धतम है उत्कट मंद कहान || ” (८५) आत्मा द्वारा किये जानेवाले शुभाशुभ विचार वाणी-वर्तन ( मन-वचन-काया) के कारण कर्मपुद्गल-रजमुख्य रूपसे आठ या प्रभेदसे एकसौ अट्ठावन - आत्माकी ओर एक निश्चित परिमाणमें आकृष्ट होती है, उसी समय उन तीनों योगोंकी तीव्र या मंदपरिणतिके कारण कौनसे कर्मोंका परिपाक, कितने समय पश्चात्, कितने सत्त्व और शक्तिसे विपाक प्रदाता बनेगा इन सभीका निर्धारण आत्मा स्वयं करती है। इसे जैनदर्शन प्रदेशबंध (परिमाण) प्रकृतिबंध (प्रकार), स्थितिबंध (काल) और अनुभाग या रसबंध (तीव्रता मंदता) कहता है। आचार्यश्रीजीके श्री अरनाथ भगवंतके स्तवनमें इनका वर्णन इस तरह मिलता है"उदर त्रिलोक असंखमें, महरिद नीर निवास कठन सिवाल अछा दियो, करम पड़ल तस ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और -इन आठोंका वर्णन कविराजने माढ़ रागमें कर्मक्षय होने पर जीवके कौनसे गुणका प्रकटीकरणका आनंद ले रहे हैं " दर्शन चरण अमरणको रे रूप रहित विलसंत...... अगुरु लघु गुण उलहस्यो रे, आतम शक्ति अनंत । सत चिद आनंद आदि लेरे, प्रगटयो रूप महंत.... कुमति शुं प्रीति भांगी रे... आत्माकी चौदह राजलोकमें चारों गति द्वारा अनादिकालसे चलती सफरसे जब उसे देव-गुरुकी अपार कृपासे थकान महसूस होती है और निर्वेदता प्राप्त होती है, तब उसे स्थिरताकी इच्छा होती है जिससे कर्ममुक्तिकी तड़प प्रबल बनती है। जैन दार्शनिक सिद्धान्तमें इस अध्यात्म स्वरूपको समझाते हुए षड्स्थानोंकी प्ररूपणा की गई है - (१) आत्मा है, (२) आत्मा नित्य है। (३) आत्मा कर्मका कर्ता है, (४) आत्मा कर्मका भोक्ता है, (५) आत्माका मोक्ष होता है ( ६ ) आत्माके कर्ममुक्तिके उपाय भी है। कृपावंत सर्वज्ञ भगवंतोने केवलज्ञानसे प्राप्त की हुई वे युक्तियाँ सभी भव्य जीवोंके लिए प्रसारित की और उन्हें ही पूर्वाचार्योंने एवं ज्ञानी महात्माओंने अक्षरदेहमें गुम्फित की। सूरिचक्रचक्रवर्ती श्री आत्मानंदजीम ने कर्मवादकी प्ररूपणा करते हुए अपने काव्योंमें इन युक्तियोंको शब्दशक्तिके माध्यम द्वारा गुंजित किया है। कषायमुक्तिके लिए कहते हैं. आठ ॥ सखि मोने देखण दे, अर जिनेश्वर चंद .....” अंतराय चारघाति और आयुष्य नाम गोत्र और वेदनीय-चार अघातिगाये एक पदमें सुंदर ढ़ंगसे किया है, साथ ही साथ कौनसे उद्घाटन होता है उसे भी प्रस्तुत करके आत्माके महंत रूप Jain Education International “मोह कोह दोह लोह जटक पटक खोह, आतम अजान मान फेर कहां दावरी ?” " मुक्ति रमणीके रसिक दृढ़ निश्चयी साधकको कर्मदलसे मुक्त होकर जल जैसे निर्मल गुण प्राप्त करनेके लिए प्रेरणा देते हैं (८६) “ जलके विमलगुण दलके करम फुन, हलके अटल धुन, अघजोर कसीए । टलके सुधार धार, गलके मलिन भार छलके न पुरतान मोदा नार रसीए चलके सुज्ञान मग छलके समर ठग मलके भरम जग जालमें न फसीए थलके वसनहार, खलके लगन टार, टलके कनक नार, आतम दरसीए । " ८५ चराचर विश्वमें मानवीके लिए काम इच्छा, जो सर्व अनिष्ट और दुःख प्राप्तिकी जड़ है, उसके लिए चेतावनी देकर उससे छुटकारा पानेके लिए कहते हैं “नरको जनम बार बार न, विचार कर, रिदे शुद्ध ज्ञान धर परहर कामको । ” 58 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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