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________________ प्रभु त्रिभुवन चंदा रे, तामस दूर टली जग शांति के दातार, अघ सब दूर टली । *" भव्य जनोंको हितशिक्षा देनेके लिए कैसी कोमल-कर्णप्रिय पथ्यवाणी से उदबोधन किया है। “जलके विमल गुण, दलके करम फुन, हलके अटल धुन, अघ जोर कसीए; टलके सुधार धार, गलके मलिन भार, छलके न पुरतान मोक्ष नार रसीए । चलके सुज्ञान मग, छलके समर ठग, मलके भरम जग, जालमें न फसीए । थलके वसन हार, खलके लगन टार, टलके कनकनार, आतम दरसीए ।। " (२२) कदम कदम पर प्रकट होनेवाली नम्रताका तो इनकी अधिकांश रचनाओमें दर्शन होते हैं, लेकिन विशेषतः दास्य भावसे भवपार उतरनेके लिए याचना रूप जो स्वर बहे हैं वे अधिक हृदयस्पर्शी बन पड़े है यथा- "श्री सुपास मुझ बिनती अब मानो दीन दयालजी तरण तारण तुम बिरुद छै, भगत वछल किरपालजी । किरपा करो मुझ भणी, थाये पूरण ब्रह्म प्रकासजी । "... Jain Education International 7 बजते हुए अनहद नादके 'तुंही तुंही' के तार तानमें प्रसन्नानंद फूट पड़ा है “ आतमराम आनंद पुरण, तुं मुज काज सुधार रे अनहद नाद बजे घट अंतर, तुंही तुंही तान उच्चार रे ।” (२४) निर्मल आत्मदशाळे अनुभवको नैसर्गिक और सहज फिर भी मार्मिक शब्दावलिमें परमात्माके सम्मुख व्यक्त करते हैं“मनरी बातां दाखाजी, म्हाराराज हो, ऋषभजी थाने (२३) मनरी बातां दाखाजी म्हारा राज...... अनुभव रंग रंगीला समता संगीजी म्हारा राज हो, आतम ताजा अनुभव राजा रंगीजी म्हारा राज".... (२५) यह संपूर्ण काव्य ही अनूठी भाव व्यंजना, सुरीली गेयता और आतमराज रंग रेलियों में झूलता - बहता भाविक श्रोताको डोलायमान कर देता है। इसप्रकार हम देख सकते हैं कि तार्किक शिरोमणि, 'न्यायाम्भोनिधि' बिरुदधारी और स्वसमय प्रभावसे प्रभावित खंडन-मंडनात्मक परुष एवं निश्चयात्मक वाग़[ विलासके स्वामी सूरिराजके काव्यमें परमात्मा प्रति सर्व समर्पित न्यौछावरी और उदात्त जिंदादिलीके साथ पर्युपासना करनेवाले कोमल ऋजु विनम्र भक्त हृदय कवि योग्य अंतर भावोंके समीचीन स्रोत स्थान स्थान पर श्रोताजनोंको निजानंदजी सृष्टिकी मस्तीमें रमानेवाले बन पड़े हैं, जो काव्यके चारु-सौंदर्यके परिचायक हैं। - भरपूर भक्ति, आध्यात्मिक गांभीर्य और उपदेश रहस्योंकी त्रिवेणी: मानव मात्रकी स्वाहिश प्राप्त जीवनमें सुखानंदकी प्राप्ति, उसके चिरंतन सामीप्यकी अपेक्षा, और उस अपेक्षा पुष्ट्यार्थ उस सुखानंदकी रक्षाके प्रयत्नमें ही प्रवृत्तिशीलता होती है। इसके लिए सर्वश्रेष्ठ साधनका अनुसंधान करते करते आविष्कार हुआ भक्तिका भगवद् भक्तिका जिससे वह अपनी अंतरात्माकी चिरंतन शान्ति, जैविक सुख-समृद्धि, अंततः शाश्वत-मुक्ति संपत्ति प्राप्त कर सकता है। यह भक्ति-भगवंतके प्रति स्वच्छंद रूपसे भावोंकी द्रव्य या भावसे-मुक्त अभिव्यक्ति है, अतः इसे स्वरूपोंमें बांधना यह प्रथम दृष्टिसे उपहासजनक लगता है फिर भी, उसमें कुछ सामान्यतः साम्यताको देखते और अनुभूत करते हुए उसके कुछ स्वरूपोंको हम निश्चित कर सकते हैं, जो सर्व धर्ममें विभिन्न रूपसे परमात्माके परोपकारादिके कारण कृतज्ञता, भगवंतके रूप-गुण-कार्यादिके प्रति अहोभाव- आश्चर्यादिके गान रूपमें प्रकटीकरण, भक्तके स्वदोष प्रदर्शन और क्षमा प्रार्थना आदि पाये जाते हैं। भागवतमें वर्णित नवधा भक्ति या कबीरकी निर्गुण और सुर-तुलसी आदिकी सगुण भक्ति, जैन कवियोंकी पंचपरमेष्ठि स्थित सालंबन या निरालंबन भक्ति अथवा नव्पदादिके प्रति समर्पण भाव भक्ति आदि अनेक रूपोंको भी इन्हीं स्वरूपोंमें समन्वित कर सकते हैं। महाकविराज श्री आत्मानंदजी म.की जीवन झलकसे विदित है कि जन्मजात कर्पूर-ब्रह्म क्षत्रिय, 43 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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