SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाला जोधाशाहके घर ढूंढक साधुओंके साहचर्य से स्थानकवासी साधु बननेवाले, सत्यके मशालचीने कैसी कष्ट साध्य और अति दुष्कर परिस्थितिमें सत्यकी रक्षा करके शुद्ध जैनधर्मकी ज्योत प्रकाशित की थी। अद्भूत अनिर्वाच्य और आत्मीय सुखानुभूति प्राप्त रससिद्ध कवीश्वर आचार्य प्रवरश्रीने उस विधनानंद स्वरूप वीतरागके कायिक दर्शन-वंदन-आसेवन वाचिक कीर्तन रूप अंतःस्पर्शन और मानसिक अर्चनसे आत्मिक रटण-स्मरण-श्रवण रूप अनेकविध भाव भक्तिसे छलाछल ऊर्मिल हृदय तंत्रीके तारको झंकृत करनेवाले मानो वीणावादन करते हुए जो पंचपरमेष्ठि स्थित परमात्माकी विविधा भक्तिके सूर प्रवाहित किये हैं, किसी भी सहृदयके चित्तको सहज ही में मंत्रमुग्ध कर देनेको समर्थ है तो सामान्य जन-जनके अंतरको भी रससागरमें निमज्जन करानेकी क्षमता रखते हैं। वीतराग देवकी अंगरचना करके जो साकार रूप अरिहंतके दर्शन करते समय आपके भाव बहे है उस भक्ति-सरितामें भाविक स्नान करते हैं “तुम चिद्घन चंद आनंदलाल, तोरे दरसनकी बलिहारी । तोरे दरसनकी बलिहारी आनंदलाल दरसनकी बलिहारी......... अलख निरंजन ज्योति प्रकासे, पुद्गल संग निवारी....तुम चिदपन चंद .... सम्यग् दरसन ज्ञान स्वरूपी पूर्णानंद बिहारी...... तुम विधन बंद..... चिद्घन .....”(२६) इन काव्य पंक्तियोंको गाते गाते अंतरके जिस उदात्त और प्रसन्नताभरे भावकी अनुभूति होती हैभक्तिकी जिस अनुरूपता चिन्मयताका आस्वाद प्राप्त होता है वही कविकी अनूठी भक्तिका परिचय करवाता है। शृंगाररसकी मस्तीको भी म्हात करनेवाली यह आत्मोन्मुख शांतरसकी प्रवाहिता भक्ति निरंतर प्रभाववृद्धि कारक बन पड़ी है। इसके अतिरिक्त अनेक काव्यो में तरणतारण, करुणानिधान, परदु:भंजन रूप साकार अरिहंत देव और चिदानंद स्वरूपी अचल, अक्षय, निरंजन निराकार सिद्ध भगवंतके दर्शन-वंदन- आसेवनादि भावोंकी झलकें दिखाई देती है। "जिन दर्शन मोहनगारा, जिने पाप कलंक पखारा। भवोदधि तारण पोत मिला तूं, चिद्घन मंगलकारा श्री जिनचंद जिनेश्वर मेरे, चरण शरण तुम धारा.......जिन...... अजर, अमर, अज, अलख निरंजन, भंजन करम पहारा, आत्मानंदी पाप निकंदी, जीवन प्राण आधारा.... जिन दर्शन “सुविधि जिन वंदना, पाप निकंदना जगत आनंदना, मुक्तिदाता... "भविजन बंदोरे, धरम जिनेसर, धरम सरूपी जिगंद मोरा; परम धरम परगासे, परदुःखभंजन, भविमन रंजन........." (५१) "जिनंदा तेरे चरण कमलकी रे, जो करे अर्चन नरनारी नैवेध भरी शुभ थारी, तन मन कर शुद्ध आगारी....." इस प्रकार भक्तिरसके भावमें सराबोर करनेवाली आत्मोज्ज्वलता प्रदाता, अंतरकी गहराईको छू लेनेवाली रचनायें प्राप्त होती हैं। (३०) , Jain Education International " 44 **** भगवंतके जिस अप्रतिम रूपका कविराजने दर्शन किया-वंदन किया उसी अनुभूत रूपको विविध भंगिमामें व्यक्त करते हुए जैन दर्शनाधारित साकार-निराकार स्वरूपोंका तादात्म्य जिस नैसर्गिक शब्दावलिमें अद्भूत गेय रूपमें, कीर्तित करते हैं वे आश्चर्यकारी है क्योंकि जिसे अन्य दर्शनकारोंने 'नेति नेति' कहकर अनिर्वचनीय कहा, उसी स्वरूपको अंतरघटके अनुपम रहस्यको व्यक्त करते हुए संपूर्ण अध्यात्म और योग सुंदर व सरस समन्वयसे एक विशिष्ट भव्यताके साथ कलात्मक रूपमें प्रस्तुत किया है। इस काव्य प्रवाह में बहती है सरल शांतता, छलकती है अंतर वेदनायें भी संभाव्य साध्य प्राप्तिकी मधुरता जो कविकी सहज प्रतिभाको प्रतिबिम्बित करती है- “ऋषभ जिणंद विमलगिरि मंड़न, मंडन धर्मधुरा कहीये। निज गुण लहीये..... तुं अकल सरूपी, जारके करम भरम, For Private & Personal Use Only " (२७) " (२८) www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy