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________________ इनके काव्यमें भावात्मक एवं अनुभूतिकी प्रवणताके साथ साथ सहजता और सरलताकी ओर उन्मुख सत्यके प्रचार-प्रसारके लिए सत्यका विवेचन एवं निरूपण हुआ है। अतः इनका मूल लक्ष्य न काव्यसौष्ठवकी ओर था न काव्य परिमार्जन या परिष्कारकी ओर, प्रत्युत इनके काव्यमें अंतर्भावोंके प्रकटीकरण एवं स्पष्टीकरण करते करते अलंकार निरूपण या प्रतीक योजनायें और बिम्ब विधान, कल्पना प्रचुर व्यंजक भाव (ध्वन्यात्मकता) और छंदोबद्धता एवं गेयता स्वतः ही आ गए हैं। इनकी रचनाका प्रयोजन न आचार्य वामनकी भाँति- “काव्य सदृष्टाऽदृष्टार्थ प्रीति-कीर्ति हेतुत्वात्" है, न आचार्य मम्मट सदृश-“काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतर क्षतये, सद्यः परिनिवृत्तये कान्ता सम्मिततयोपदेश युजे।" लेकिन प्रायः यह कह सकते हैं कि आचार्य भामहके समान-धर्मार्थ काममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु व' है। अर्थात इनकी रचनाओमें परमात्व तत्त्वकी स्वानुभूति और परमपद प्राप्तिके साथ साथ लोकमंगल भावनाकारी उपदेशोंकी प्रमुखता है। इनके काव्योंकी अपनी विशेषतायें हैं-जो जैनधर्मके विशिष्ट आदर्श-स्याद्वाद और अनेकान्तवादकी अक्षुण्ण एवं अद्भुत रसधारमें उल्लास-विषाद, नीडरता भवभीरुता, रहस्यमय गूढ़ता एवं सरलता, नित्यानित्यता अथवा क्षणिकता और सनातनतादि विभिन्न विरोधाभासी भावोंको एक साथ अपनेमें समेटे हुए प्रवाहित होती रही है। अतः इन रचनाओंका विशेषाधिक मूल्य सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिसे प्रेक्षणीय है। डॉ. तारकनाथ बाली अपने 'निर्गुण भक्तिकाव्य' लेखान्तर्गत इसी विचारधाराको प्ररूपित करते हुए लिखते हैं“साहित्यकी जो लौकिक सीमायें तथा काव्यशास्त्रीय एवं भाषा वैज्ञानिक स्वीकृतियाँ हैं, उनमें इस काव्यधाराको नहीं बाँधा जा सकता, परंतु पारमार्थिक, अलौकिक एवं दार्शनिक जगतकी झाँकियोंकों प्रस्तुत करनेवाले इस साहित्यका अपना महत्व है। कोमल-ऋजु-नम्र हृदयतंत्रीके त्रिताल--- नैसर्गिक कवित्व शक्तिके स्वामी कविराज श्री आत्मानंदजीकी हृदयतंत्रीके त्रितालमें सुनाई देती है कोमलता, नाचती है ऋजुता, दिखाई देती है नम्रता। लयबद्ध नादसौंदर्यकी झंकृतिसे झलकते हैं निजात्माको उद्बोधन और समाजको संबोधन (मार्गदर्शन)। परमात्माके कीर्तन, वंदन, स्मरणादि रूपोमें की गई भक्तिमें छलकती है कोमल-सरल-नम्र अंतरभावोंकी अभिव्यक्तियाँ। 'कुसुमादपि कोमलानि, व्रजादपि कठोराणि'-उक्ति साधुजीवनकी शोभा है। ‘पर अन्य) एवं परमात्माके प्रति अत्यन्त कोमलता और 'स्व' एवं संसारके प्रति कठोरता यह अणगारके आभूषण हैं। परमात्माका जीवन स्वयं वीतरागताको संजोये हुए जीवमात्रके प्रति कल्याणकारी होता है। यही कारण है कि जिनेश्वर प्ररूपित जैनदर्शनमें 'पर'-अन्य सर्व जीवोंके प्रति कोमल-करुणा भाव धारण करते हुए 'स्व के प्रति-निजात्माके अवगुण, कर्मकलंकोंके प्रति-कठोर अर्थात् आत्मदमन, इन्द्रियदमन, आशा-अपेक्षाओंका दमन करनेके साथ ही साथ संसार और सांसारिक-भौतिक-पौद्गलिक भावनाओंके प्रति कठोरताका (इनके त्याग करनेका) आहलेक जगाया गया है। जिससे विश्व व्यवहारके अनेक भावों और कार्यकलापोंका, शिक्षण-संस्कार-संस्कृति आदिका विकास और वृद्धि शक्य बन सकें। श्री आचार्यदेवने अपने काव्यमें इन्हीं भावोंको साकार करनेके लिए अत्यन्त ऋजुताके साथ अर्हद् भक्तिभावमें मग्न बनकर गाया है “अर्हत पदको भजके चेतन, निज स्वरूपमें रम रहिये। तुम अकल स्वरूपी, छोड़के परगुण, निज सत्ता लहीये। आतम घनमें खोज पियारे, बाहिर भरम ते ना रहिये। गड़बड़ सब त्यागी, पासके चरणकमलमें जा रहीये।” (२०) ऐसे ही परमात्व स्वरूप दर्शनसे प्रसन्नता व्यक्त करते हुए झूम उठे हैं ___ “प्रभु अविचल ज्योति रे, निज गुण रंग रली। (42) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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