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“नीले मधु पीके टीके शीखंड सुगंड लीके करत कलोल जीके नागबेर चाख रे, अतर कपूर पूर अगर तगर भूर मृगमद घनसार भरे धरे खाख रे। सेव आरू आंब दारु पीसता बदाम चारु आतम चंगेरा पेरा चखत सुदाख रे,
मृदु तन नार फास, सजाके जंजीर पास पकरी नरकवास अंत भई खाख रे।।१७) इस प्रकार महाकविराज श्री आत्मानंदजी म.के पद्य साहित्यके अवलोकनसे ज्ञात होता है कि इन्होंने प्रायः परमात्माके प्रति सर्वस्व समर्पण एवं आत्माभिव्यक्तिके स्तवन, पद, सज्झाय, पूजादिमें विशेषतः सरस, मधुर, एवं ललित शैलीका प्रयोग किया है, तो मुक्तकादिमें मधुर, ललित, विदग्ध एवं उदात्त शैलीको अपनाया है। कहीं कहीं व्यंग्य शैलीका रसपान भी छलक जाता है। जैन काव्य शैली स्वरूप--यद्यपि मानव हृदय एकसा होता है तथापि प्रत्येक जातिके साहित्यकी निजीवैयक्तिक विशिष्टता होती है। जातिके विकस्वर भाव स्वरूप, उनके विकासके साथ ही साथ साहित्यमें झलकते रहते हैं, जो कभी कभी इतने प्रभाविक होते हैं कि उससे समाज जीवनमें एक स्थायी परिवर्तन लाया जा सकता है। जैन कवियोंके साहित्यकी रचना शैलीकी अपनी विशिष्टतायें हैं, जो अन्य धर्ममतावलम्बियोंके भक्ति साहित्यसे निराली ही हैं। इनके विभिन्न शैली रूपोंको हम इस प्रकारसे वर्गीकृत कर सकते हैंआचार-जिनमें घटनाओंके स्थान पर उपदेशात्मकता प्रधान होती है। रास-आचार्य परशुराम चतुर्वेदीने अपने लेख 'भक्तिकालकी पूर्वपीठिका के अंतर्गत लिखा है- “जैन कवियोंने लोकप्रचलित शृंगार-परक आख्यानों तथा काम-कथाओंका उपयोग, शील-वैराग्य भावनाके प्रचारमें किया" (१८) अतः वही पौराणिक पात्रोंके जीवनालेखनका प्रयास इस नव्य काव्यरूप 'रास के अंतर्गत किया गया। चरित काव्य-इनमें शलाका पुरुषों, महापुरुषों, महासतियों आदिके जीवन चरित्रोंकी प्ररूपणा हुई है जिससे उत्तम एवं उदात्त जीवन शैली और संस्कृतसंस्कार-व्यवहारादिके सुधार तथा उर्वीकरणकी प्रेरणायें-संदेश मिलते हैं। फागुकाव्य-ये 'होरी' काव्योंका रूप माना जाता है। इनमें होरीकी स्वच्छंद मस्तीको परिवर्तीत करके विविध आध्यात्मिक भावोंकी सृष्टि की जाती है। चर्चरी-विशिष्ट जीवन प्रसंगोंका आलेखन किया जाता है। संवाद-जिसमें प्रमुखतः गुरु शिष्यादि संवाद मिलते हैं, जो तत्त्वोपदेश रूप होता है। प्रगीतान्तर्गत बारहमासा- इनमें शृंगारिकताका स्थान नीति या अध्यात्मने लिया है। मुक्तक-जो प्रगीतकाव्यका ही एक रूप माना जाता है और जिसमें संगीतात्मकता विशेष रूपमें पायी जाती है। इनमें भगवद् भक्तिके लिए रचे गए स्तुति, चैत्यवंदन, स्तवन, सज्झाय, गहुली, आरती, मंगलदीप, पर्व-त्यौहार गीत, तीर्थ वंदनावलि, विनती, पद, पूजादि अनेक विभिन्न रूप पाये जाते हैं। इनमें साकार रूप अरिहंत एवं निराकार रूप सिद्धकी त्रिविध, अष्टविध, सत्रह-इक्कीस प्रकारसे की जाती पूजाभक्ति-भादोंका स्वरूप, बीस स्थानकादि विविध तपादिका स्वरूप, श्री अरिहंतादि शलाका पुरुषादिके गुणगान, कल्याणक महोत्सवादि भक्ति स्वरूप, तीर्थोके वर्णनादिका जो अत्यन्त चमत्कारिक, आलंकारिक, वैभवपूर्ण आलेखन विविध छंद, लय एवं राग-रागिनियोंमें हुआ है। महाकवि श्री आत्मानंदजीके पद्य साहित्यमें भी इन रूपोंके दर्शन होते हैं-यथा- 'उपदेश बावनी' 'ध्यान स्वरूप' आचार काव्यके रूपमें; 'चतुर्विंशति जिन स्तवन' एवं अन्य तीर्थंकरोंके स्तवन-चरित काव्यके रूपमें; "आत्मविलास स्तवनावलि के कुछ पद फागुकाव्यके रूपमें; ‘स्नात्रपूजा-चर्चरी रूपमें; 'श्री नेमिनाथ जिन स्तवन'- बारहमासाके रूपमें एवं अन्य मुक्तक रूपोंके अन्य फूटकर रचनाओंमें रसास्वादन मिलता है।
__उपरोक्त वाङ्मय विषयक विवरणके साथ साथ स्मरणीय है कि विवक्षित साहित्य रचनायें भी संसार विरक्त एवं आत्माभिमुखः परमतत्त्व-देवाधिदेवकी अचिन्त्य-अलौकिक-उत्कृष्ट भक्ति भाव-प्रणिधानमें तन्मय एवं तद्रुप; अनूठे आत्मानंदमें निरंतर अवगाहनकर्ता, जैनधर्मस्तंभ श्री आत्मानंदजी नामाभिधान जैनाचार्य द्वारा केवल 'स्वान्तः सुखाय-जगजन हिताय की भावनायुक्त उमड़ते हुए भावोद्रेकके साथ स्वतः ही फूट पड़ी थी। जिसमें परमपद (मोक्ष) प्राप्तिके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं विशद मार्ग प्रवाहोंका मार्गदर्शन विशेष रूपसे प्राप्त होता
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