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काव्य (३)
गद्य
लेखन शैली प्रयोजन या स्वरूप
रमणीयता 'पद्य मिश्र(चम्पू) 'श्रव्य
दृश्य उत्तम
मध्यम (अधमाअवर संबंध निर्बन्ध नाटक प्रकरण भाण प्रहसन डिम व्यायोग वीथी समवकार 'अक ईंहामृग
'श्रव्य
दृश्य
उत्तम
मध्यम (अधमतर
(मुक्तक)
प्रबन्ध
निबन्ध
प्रकीर्णक
रस(नवप्रकार)
नेता
वस्तुविषय)
महाकाव्य एकार्थ खंडकाव्य अल्पगीत 'गीत प्रगीत कुल स्वभाव व्यवहार स्वरूप आधार 'नाट्य विन्यास
काव्यके इन भेदोपभेद-प्रभेदोंके अध्ययनोपरान्त यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि पूर्वाचार्योंने 'काव्य' शब्द-जो वाङ्मयके लिए प्रयुक्त किया था या जिसका अभिप्रेत 'साहित्य' था-अधुना शैली आलेखनानुसार केवल पद्य रचनाको ही काव्य या कविता कहा जाता है। अब हम देखें कि काव्यके तत्त्व कितने और कैसे हैं? काव्य रचना प्रक्रिया और काव्यके तत्त्व :- कवि, ब्रह्म सहोदर रसानन्द प्रदाता काव्यानुरूप भावोंको अनुभूत करते करते उसके उद्दाम रूपको प्राप्त करता है तब उसका अंतस्तल तरंगित होता है, अंतरमें भावोद्रेकता उमड़ती है, उसी स्थितिमें वे भाव शब्दोमें ढलने लगते हैं। कल्पना-भाव और शब्दार्थ, बुद्धिकी तुलासे कसे हुए अनायास ही अभिव्यक्ति पा जाते हैं। तब जो कुछ निष्पन्न होता है वह रचना-कृति ही बन जाती है एक 'काव्यरूप।
___ अतः हम किसी भी काव्यमें दो तथ्य अवश्य पाते हैं-भावानुभाव और भावाभिव्यक्ति; जिन्हें साहित्यविदोंने भावपक्ष और कलापक्ष माना है। इन्हींको डॉ.भगीरथ मिश्रजीने पांच तत्त्वों-शब्द, अर्थ, भाव, कल्पना और बुद्धि-के रूपमें "और पाश्चात्य विद्वानोंने चार तत्त्वों-राग, कल्पना, बुद्धि और शैली में समन्वित करनेका प्रयास किया है।
भारतीय और पाश्चात्य विद्वानोंके इन अभिमतोंका सामंजस्य हम कुछ इस तरह कर सकते है-'शब्द' और 'अर्थ'-इस युगलसे भावक द्वारा अनुभूत भावोंकी अभिव्यक्ति की जाती है। शब्दार्थके बिना अनेक भावोंका आलंकारिक, चमत्कार-निष्पन्न, निरूपण असंभव हैं। शब्दसे ही अर्थ या भावार्थका द्योतन होता है। शब्दोंके (वर्णोके) लघु-गुरु रूपसे छंदोकी सृष्टि होती है, तो गति-प्रवाह-लय (नाद सौंदर्य) आदिकी कलात्मकता शब्दाधीन ही होती है। शब्दसे ही परूषा, कोमला और उपनागरी वृत्तियोंका निमार्ण होता है जबकि अभिधा, लक्षणा और व्यंजनादि शब्द-शक्तियोंका प्रकटीकरण 'अर्थ' पर ही निर्भर है। 'भाव' और 'कल्पना'की सक्षम अभिव्यक्तिको प्रस्फुटन करनेवाला शब्दार्थ ही तो होता है। अतः भारतीय विद्वानोंके 'शब्द' और 'अर्थ' तत्त्वोंका पाश्चात्य विद्वानोंके 'शैली' तत्त्वसे समवाय हो जाता है। “अभिव्यक्तिकी कुशल शक्ति ही कला है।" -श्री मैथिली शरण गुप्तजी।
इसी तरह 'भाव'तत्त्वको पाश्चात्योंके 'राग'तत्त्वमें समन्वित किया जा सकता है। 'राग' अर्थात् प्रीतिअनुराग- जिसके कारण जीवन सुख-दुःखकी अनुभूति युक्त बनता है। "हमारे संस्कार रूपमें प्रतिष्ठित मनोवेग पुनःस्मृत और अनुभूत होकर जब प्रकट होते हैं तब वे 'भाव' बनते हैं। भावकी तीव्रता ही अभिव्यक्तिको उद्दीप्त करती है। भावोंमें प्रेरकता और संक्रामकता रहती है.... अतएव काव्यके क्षेत्रमें भावका बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।५)कविकी कल्पनाका प्रेरक और छंद-लयादिके स्वरूपका विधायक 'भाव'ही संवेदना जागृत करता है। “भावही मूलत: शब्द-प्रवाहका उत्स है। ...अत: 'भाव'काव्यका व्यापक तत्त्व है। (६)
कविकी सौंदर्य-प्रियता और प्रकृतिचित्रणकी सूक्ष्मतम अभिव्यंजनाका परिचायक 'कल्पना' तत्त्व है; जिससे अनुभूतिकी जटिलता और सत्यके प्रत्यक्षीकरणमें उद्रेकका आविर्भाव शक्य बनता है। 'कल्पना'ही कविकी
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