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________________ ॐ ह्रीं नमो नाणस्स पूर्व द्वितीय - श्री आत्मानंदजी महाराजजीका पद्य साहित्य "न स शब्दो न तद्वाच्यं न सा विद्या न सा कला। 2 Jain Education International जायते यन्न काव्यांगं, अहो भारः महान कवेः ।। " - आचार्य भामह काव्य परिचय- परिभाषा डॉ. भगीरथ मिश्रजी काव्यको स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-"काव्य, जीवन और सत्यको संवेद्य बनानेवाली शब्द-रचना है। ”(१) अर्थात् 'जीवन', जो परिवर्तनशील सत् और परमात्मा' जो शाश्वत सत्य- इन दोनोंको अनुभवगम्य और संवेद्य बनानेवाली या प्रत्यक्षीकरण करानेवाली सहज स्वाभाविक रचना जो चित्र या अन्य स्थापत्यादि ललित कलाओंसे भिन्न, केवल ललित शब्द रचनाको काव्य कहा जा सकता है, जिससे सृष्टिकी सुंदर एवं अद्भूत संवेदना उत्तेजित होकर कल्पनाके सहारे प्रभाविक रूपमें पाठकको आनंद आश्चर्य-करुणाकृतज्ञता आदर-मान आदि भावोद्रेकमें बहा ले जाती है। कभी युगानुरूप भावानुरूप उसके रूप परिवर्तन होते हैं, लेकिन मूल आत्मा वही बनी रहती है। “इस दृष्टिसे साहित्य चिर नवीन भी है और चिरंतन भी” (5) अतः सृष्टिके सदृश काव्य भी शाश्वत होते हुए भी नित्य नवीन होता है। · विश्व के सुखदुःख, राग-द्वेष, ईर्ष्या प्रेम आदि भावानुभावों और नैसर्गिक सौंदर्यादिकी गतिविधियोंसे अवाप्त आत्मानंदानुभूतिकी अदम्य भावाभिव्यक्ति रूप काव्यको कई विद्वानोंने मम्मट, भामह, पं. विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथादि संस्कृतादि प्राचीन भाषाविदों और संत तुलसी, देव, केशव, भारतेन्दु हरिश्वन्द्रजी, आ. रामचंद्र शुक्ल, आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी, डॉ. भगीरथ मिश्र आदि अर्वाचीन हिन्दी आदि पौर्वात्य भाषा मनीषियोंने एवं कोलरिज, शेली, किट्स, डॉ. जोन्सन, ले. हण्ट वर्ड्सवर्थ आदि पाश्चात्य विद्वद्वयोंने स्व मत्यानुसार परिभाषित करनेका आयास किया, लेकिन, प्रायः कोई भी गुणाढ्य व परिपूर्ण परिभाषा प्रदान नहीं कर पाया। क्योंकि सामान्यतः जैसे गुणादि सौंदर्यालंकरणके बिना, अनलंकृत देहकी शोभा नहीं बिना देह निरंजन आत्माकी पहचान अत्यन्त दुरूह बनती है और बिना आत्मा न चैतन्य है, न जीवितव्य वैसे ही सभी विद्वानों द्वारा विवरित काव्यकी परिभाषाओंमें काव्यकी आत्मा, देह, लालित्य, गुण, दोष, अलंकरण, बाह्याभ्यन्तर सौंदर्यादि अनेकविध पहलूओंका पृथक पृथक विवरण पाया जाता है, लेकिन उसके सर्वाग संपूर्ण व्यक्तित्वको पेश कर सकता है एक मात्र उन सबका समवाय- कोई एकांग नहीं । अतः निष्कर्ष रूपमें हम यह कह सकते हैं कि मनुष्यकी जिज्ञासा एवं आत्माभिव्यंजनाकी अदम्य इच्छासे मानव जीवनकी विशद व्याख्यान्तर्गत प्राकृतिक सौंदर्यका रसात्मक नैसर्गिक हार्दिक निरूपण जिससे पाठक सांसारिक सर्व परिस्थितियोंसे ऊपर उठकर काव्य घटनाओंको आत्मसात् करके आनंदानुभूति पाता है जब उसकी मनोदशा ब्रह्म साक्षात्कार किए हुए योगी सदृश हो जाती है वही काव्य है। विभिन्न काव्य विधाय काव्यके ऐसे विशद लक्षणानुसार दर्शन-विज्ञान, इतिहास-पुराण काव्यान्तर्गत गीत, कविता, प्रबन्ध, मुक्तक, नाटक, आख्यान, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध, जीवनचरित्र पत्रादि विभिन्न सभी साहित्यिक विधायें अपने अपने भावसुमन संजोये स्थितिबद्ध हैं। इन्हें लक्ष्य ग्रन्थ या उदाहरण ग्रन्थ कहा जा सकता है। जबकि साहित्यालोचना लक्षित काव्यलक्षण, काव्यभेद, गुण-दोष, रस- अलंकार- छंद, बिम्ब योजना या प्रतीक योजनादिको विश्लेषित एवं विवेचित करनेवाली रचनायें लक्षण ग्रन्थ मानी जाती हैं। पूर्वाचार्योंके मतानुसार लक्षण ग्रन्थको 'साहित्य' और लक्ष्य ग्रन्थोंको 'काव्य' कहा जाता है। लेकिन, साम्प्रत कालमें अब 'साहित्य'को 'literature' का पर्यायवाची माना जाने लगा है और 'काव्य' शब्द-साहित्यके अंग 'कविता' के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्रजीने काव्य - वाङ्मय - साहित्यके भेद इस तरह किये है 36 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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