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________________ प्रयुक्त डॉ.रुडोल्फ की पंक्तियाँ दर्पण स्वरूप हैं। जिनमें जैन-जैनेतर दर्शनियों द्वारा जैन दर्शनके प्रति मनमाने भ्रम्रात्मक, असत्य और अनुचित आक्षेपोंके बवंडरको बेतरतिब करके जिनशासनके उज्ज्वल और महान सत्याद की रक्षा हेतु प्रामाणिक-सत्य और भ्रमशून्य ज्ञानालोकका आश्रय लेकर किये गये भगीरथ पुरुषार्थका प्रतिविम्त झलकता है “दुराग्रह ध्वान्त विभेदमानो, हितोपदेशामृत सिन्धु चित्त । संदेह संदोह निरासकारिन्, जिनोक्त धर्मस्य धुरंधरोऽसि ॥" तत्कालीन समाजमें व्याप्त सामाजिक कुरिवाज़ों, कुरूढियों और कुसंस्कारोंके परिहार हेतु अपने विशाल अध्ययन और ठोस ज्ञानका लाभ वितरित करके समाजमें संस्कार, सुधार, परिष्कारके बीज वपन किये । इसके साथ ही अज्ञानतिमिर निवारण-इलाज रूप ज्ञानालोकका प्रसार किया । सोलह संस्कार स्वरूप, आत्मापरमात्मा विषयक निरूपणान्तर्गत परमात्म भक्ति और आत्म समर्पण एवं आत्मिक विकासश्रेणि सूचक चौदह गुणस्थानक स्वरूप; गृहस्थ (श्रावक) और साधु (श्रमण)की जीवनचर्याकी चर्चा, षद्रव्य, कर्म विज्ञान, धार्मिक अनुष्ठानों एवं ध्यानादि अनेक विषयक विशिष्ट निरूपणोंके विवरणादि अनेकविविध विषयक अत्यन्त विशद साहित्यकी रचना की, जिससे हिन्दी जगतको जैन वाङ्मयके विभिन्न आश्चर्यजनक, अभूतपूर्व विषय वैविध्यका परिचय प्राप्त हुआ । __ आगम प्रभाकर श्री पुज्यविजयजी म.सा.ने ज्ञानभंडार विषयक अपनी अनुभवी दृष्टिसे किये निरीक्षणों को वर्णित करते हुए लिखा है --“मेरे देखे हुए ग्रंथों में ताड़पत्रीय ग्रन्थोंकी संख्या लगभग तीन हज़ार जितनी और कागज़ो परी ग्रन्थोंकी संख्या तो दो लाखसे कहीं अधिक है । यह कहनेकी जरुरत नहीं कि, इसमें सभी जैन फिरकोंके सब भांडारोंके ग्रन्थोंकी संख्या अभिप्रेत नहीं है । वह संख्या तो दस पंद्रह लाखसे भी कहीं बढ़ जायेगी ।"६० इतने विशाल विविध विषयक अनेक-विध ग्रन्थ-रूप साहित्यमें कितनी अगाधता औरप्रचुरता निहित होगी यह वाकयी कल्पनाका विषय है । उस अपार ज्ञानराशिके रत्नाकरक आकंठ पान करके मस्तिष्कमें कैद करना ही विशिष्ट प्रतिभाका परिचय करवाता है, जिसे जैन साधु (या श्रावक भी) पुनरावर्तन रूपमेंस्वाध्याय परंपरासे-ज्ञानारणीय कर्म निर्जराका हेतु मानकर, विद्यमान रखनेमें सफल होते हैं। चिकागो प्रश्नोत्तर', 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तरादि', ग्रन्थोंकी रचना हुई देशकालानुसार-तत्कालीन समाजकी तकाज़ापूर्ति हेतु (आवश्यकताके महदुद्देश्यसे) और 'सम्यक्त्व शल्योद्धार', 'चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग-१-२', "ईसाई मत समीक्षा', 'अज्ञानतिमिर भास्कर' आदि प्रतिकारात्मक प्रवृत्तिरूपः 'बृहत् नवतत्त्व संग्रह', 'जैन तत्त्वादर्श', 'जैनधर्मका स्वरूप', 'तत्त्वनिर्णयप्रासाद' आदि संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थोंके हिन्दीमें आगमिक ज्ञानोद्धार और तत्त्व जिज्ञासुओंकी तृप्ति हेतुः "जैन मत वृक्ष' जैसी आन्वेक्षिकी कृति निजात्मानंद या आत्म परितोष हेतुकी गई है । निष्कर्ष :- इस प्रकार हिन्दी भाषाके विकासकी परंपरामें अपना महद् योगदान प्रदान करके राष्ट्रभाषा हिन्दीकी महान सेवा करनेवाले सूरि सम्राट द्वारा विरचित वाङ्मयके आलंबनसे विविध उद्देश्यपूर्तिमें सफलता प्राप्तिके कारण उनके साहित्यको उत्तमताके साथ नितान्त समाजोपयोगिता एवं अत्यन्त लोक प्रियता प्राप्त हुई है । अतः यह प्रतीत होता है कि स्व-पर कल्याण साधकने शासन सेवाके साथ जिनेश्वरोंके प्रति अपनी अथाग आस्थाको प्रस्फुटित करके विश्व कल्याणमें आत्म समर्पण किया है । Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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