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________________ 11 ज्ञान-प्रतिभाका तादृश चितार है। 'कल्पना से ही काव्यमें अनूठा लाघव, रमणीयता, रोचकता, चमत्कार, असाधारणत्वादि प्रदर्शित होता है। ___'शब्दार्थ' रूप कलापक्ष और 'भाव-कल्पना' रूप भावपक्षका यथायोग्य सामंजस्यपूर्ण नियोजन 'बुद्धि'से होता है, जो काव्यको प्रभावशाली एवं औचित्यपूर्ण रूपमें स्थिर करता है। कविकी सूक्ष्म संवेदना और उर्वर कोमल कल्पनासे भावोंकी विलक्षणता संपादित होती है। अतः "भावपक्ष' काव्यकी आत्मा और 'कलापक्ष' उसका शरीर माना जा सकता है। दोनों अन्योन्याश्रय संबंधित होनेके कारण एक दूसरेको यथोचित-यथावसर प्रबल बनाते हैं। दोनोंकी समन्विति काव्यको श्रेष्ठता बक्षती है। भाव पक्षान्तर्गत वस्तु निरूपण, चरित्रचित्रण, प्रकृतिचित्रण, नाद-सौंदर्य, जीवन-दर्शन, युग-संदेश, रस-नियोजनादिका विश्लेषण और कलापक्षान्तर्गत अलंकार-विधान, छंद-विधान, संगीतात्मकता (गेयता) आदिकी मीमांसा की जाती है। रमणीयताके संदर्भमें काव्यभेद-सत्यका अनुसंधान करके तात्त्विक नव्य भावोंकी संप्रेषणीयता तथा मानवमनको संस्कारित करके सांस्कृतिक प्रगति एवं वैचारिक क्रान्ति प्रदाता. काव्यका "भावपक्ष' और काव्यके वास्तविक सत्यको सुंदर, आकर्षक और चमत्कारपूर्ण विलक्षण सूक्ष्म एवं प्रभावपूर्ण ढंगसे वैचित्र्य और वैविध्यताके साथ छंदोबद्ध या मुक्त रूपमें लयबद्ध-अप्रस्तुतादि योजनाओं द्वारा प्रस्तुतकर्ता काव्यका 'कलापक्ष'-दोनोंकी अभिव्यक्तिका एक मात्र साधन-प्रमुख अंग-होती है भाषा; जो कविकी संवेद्य मनोभावाभिव्यक्तिका पाठक या श्रोताको रसास्वादन कराती है। भाषा होती है सार्थक शब्द प्रयोगोंका यथोचित, यथावसर, यथेच्छ विधान या ग्रंथन। इन शब्द प्रयोगों द्वारा अर्थाभिव्यक्तिके वैचित्र्यसे शब्दशक्तिके तीन भेद होते हैं-अभिधा, लक्षणा, व्यंजना-जिसे काव्याभ्यासियोंने 'वाचक' शब्द प्रयोगसे वाच्यार्थकी ज्ञापक शक्ति 'अभिधा'; 'लक्षक' शब्द प्रयोगसे वाच्यार्थको छोड़कर उससे सम्बद्ध अर्थ-लक्ष्यार्थकी ग्राहक शक्ति 'लक्षणा'; और इन दोनोंके अतिरिक्त किसी विलक्षण अर्थकी अवबोधक शक्तिको 'व्यंजना'के रूपमें वर्गीकृत किया है। इनके कारण काव्यकेउत्तम, मध्यम, अवर-तीन भेद माने गये हैं। जिसमें व्यंग्यार्थ (ध्वनि की प्रधानतायुक्त काव्य 'उत्तम'; वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ-दोनोंकी समानता या गुणीभूत व्यंग्य काव्य 'मध्यम' और केवल वाच्यार्थ निष्पन्न काव्यको 'अवर' (अधम या चित्रकाव्य) कहा जाता है। काव्य शैलियाँ:-- नैसर्गिक रूपमें प्राप्त भाव विचार और कल्पनाको सार्थक शब्द समूहोंके व्यवस्थित एवं उपयुक्त रीतिसे प्रभावोत्पादक ढंगसे प्रयुक्त करनेका कौशल ही शैली है। श्री श्यामसुंदरदासजीने 'शैली'को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “किसी कवि या लेखककी शब्द योजना, वाक्यांश प्रयोग, वाक्य बनावट और उनकी ध्वनि-आदिका नाम ही 'शैली' है।(७) । प्राचीन संस्कृत साहित्यमें शैलीका विवेचन अलंकारवादियों द्वारा रीतिके रूपमें हुआ। इनमें प्रमुखतः आचार्य वामनने तो रीति' ही काव्यकी आत्मा मानी है। रीतिके विवेचनान्तर्गत हम देख सकते हैं कि शब्दके तीन गुण होते हैं, जिससे तीन वृत्तियाँ निष्पन्न होती हैं। इन्हीं तीन गुणाधारित वाक्य रचनाकी रीतियाँ भी तीन मानी गई हैं। साथ ही साथ काव्यमें रसकी प्रधानता होती है और गुण, काव्यका आभ्यन्तर धर्म माना जाता है, क्योंकि प्रायः बिना गुण रसका अस्तित्व ही नहीं हो सकता। अतः हम कह सकते हैं कि समास रहित या अल्प समासवाली सुकुमार शब्दावली युक्त माधुर्य गुण निष्पन्न मधुरा वृत्तिवाली शैली “वैदर्भी" होती है जिसमें शृंगार-करुण-शांत रस पलते हैं: तो दीर्घसमास, ओज और कान्ति गुणयुक्त, अक्षराडम्बरवाली परुषावृत्ति एवं संयुक्ताक्षरोंवाली “गौड़ीशैली की रचनाओमें वीरबिभत्स-रौद्रादि रसोंका अनुभव मिलता है। जबकि स्वल्प समास, सुकुमाल शब्दावली प्रधान, शिथिल पद संगठनवाली, प्रसाद गुण सिद्ध और प्रौढावृत्ति युक्त “पांचाली शैली" सर्व रसोंको परिपुष्ट करती है। कोमलपद, उचित समास युक्त विशेषण प्रधान वर्णनवाली जो शैली है उसे 'लाटी रीति' कहते हैं। विशेषतः वैदर्भ (38) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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