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खडीबोलीमें गद्य रूपमें निखार धारण करने लगी थी । सोलहवीं शतीके श्रीहीरसूरि म.सा.: सत्रहवीं शतीके श्रीसकलचंद्रजी म., श्रीसमयसुंदरजी म., श्रीजिनराज सूरिजी, श्रीप्रीति विमलादि एवं अठारहवीं शतीके महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी म., श्रीचिदानंदजी म., अध्यात्म योगी श्रीआनंदघनजी म., श्रीज्ञानविमल सूरिजी आदि द्वारा अध्यात्म रससे लबालब, आत्म कल्याणकारी, धार्मिक क्रियानुष्ठान और दार्शनिक-सैद्धान्तिक प्ररूपणाकी वाहक, गुजराती भाषासे प्रभावित, ब्रजभाषा मिश्रित भाषामें निहित पद्य साहित्यका स्थान आधुनिक कालमें संविज्ञ शाखीय आद्याचार्य श्री आत्मानंदजी म.सा.के समाजोत्थानसे युक्त आध्यात्मिक सिद्धान्तादि प्ररूपक खड़ीबोलीका गद्य साहित्य ग्रहण करने लगा ।
जैनधर्म-सद्धर्म-प्रभावक, प्रचारक, प्रसारक, जिनशासनके ज्योतिर्धर, महान युगप्रधान श्री आत्मानंदजी म.सा. की अंतर-वीणाकी झंकृत तारोंने एक ही सात्त्विक राग-समस्त जैन समाजोपकारी, जन-जनके लिए कल्याणकारी एवं जीवमात्रके मंगलमय उत्थान हेतु एक मान जांगुलीमंत्र या सर्वौषधिके सिद्ध उपचार स्वरूप, श्री जिनेश्वरकी वाणी, जैन दार्शनिक सिद्धान्त और श्री अरिहंत द्वारा प्रकाशित सत्-शुद्ध एवं शाश्वत धर्मकी प्ररूपणाका राग ही बजाया थाः जिसके लय और ताल पर थिरकते हुए शुद्ध श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान एवं उत्तम चारित्रके अनेक गुणोंकी प्रतिमूर्ति रूप उनके आदर्श जीवन व्यवहार द्वारा विश्वके सकल जीवोंका शाश्वत धर्मसे कल्याणकारी परिचय करवानेकी अत्यन्त तीव्र ललकका लास्य नर्तन हो रहा था। परिणामतः लोकभाषाको सदैव सम्माननीय और आदरणीय स्थान प्रदान करनेवाली जैन सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपराके अनुसरण स्वरूप आपने भी तत्कालीन जनभाषामें अपने जैन-धर्माश्रयी सैद्धान्तिक विचारोंका प्रवाह प्रगहित किया । कहा जाता है कि उनकी मधुप्रश्रवा वाणीके अमृत-पानानंतर कोई भी धर्मी-भ्रमर, धर्म श्रवण रूप मधुसंचय हेतु और कहीं पर भी नहीं जा सकता । “जैन तत्त्वादर्श ग्रन्थके 'प्रासंगिक वक्तव्य में श्री बनारसीदास जैनने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि-"मेरा अनुमान है कि, जिस भाषामें वे अपना उपदेश देते होंगे, उसीमें उन्होंने इस ग्रन्थकी रचना भी की है ।"५१ उस समय जब विदेशी भाषाओंके विषैले प्रचार-प्रसार रूप विकट विपत्तियों और हिन्दी विरोधी बवंडरोंके बीच हिन्दी भाषाकी किश्ती स्थिरत्व प्राप्ति हेतु पुरुषार्थशील बन चूकी थी, तब उस प्रचंड़ तेजस्वी, बुद्धि वैभवके स्वामी, विश्वके प्रधान विद्वानोंकी श्रेणिके सुधारक महात्माने भी तत्कालीन लोकभाषा-हिन्दी-को ही प्राथमिकता एवं प्रमुखता प्रदान करके अपने प्रभावी प्रतिभा सम्पन्न विचार और वाणीको वाङ्मयकी विभिन्न शैलियोंमें आबद्ध करते हुए आत्म कल्याणके मार्गको प्रशस्त करनेमें यथासंभव उत्कृष्ट योगदान दिया, जो उन्हें हिन्दी साहित्यके प्रथम गद्य लेखक बननेका सौभाग्य बक्षता है । “आपने (श्री आत्मानंदजी म.सा.ने) हिन्दी भाषामें ग्रन्थ लिखकर न केवल धर्मका उद्धार किया और हमारी आत्माको प्रकाश दिखाया, किंतु उन्होंने हिन्दी भाषाके विकास और उन्नतिमें अनायास ही महान सहयोग दिया है । जैन संप्रदायमें हिन्दी (खड़ीबोली)के सबसे पहले ग्रन्थ लिखनेका श्रेय उन्हीं महात्माको ही है ।"५२ राष्ट्रभाषा हिन्दीके प्रारम्भिक गद्य विकासमें आचार्य प्रवर श्रीका योगदान:---- बौद्धिकताका व्यावहारिक जीवनापेक्षया कम विकास, तत्कालीन जन मानसकी अत्यधिक भावुकता, धर्मनिष्ठता
और काव्यप्रियताः संस्कृत-प्राकृतादिकी पद्य-प्रश्रय प्रवृत्ति; साहित्यको कंठस्थ रखनेकी परंपरा और विभाषाओमें व्याख्यानुवादकी प्रबल प्रवृत्तिके अभावके कारण भक्तिकालमें साहित्यिक गद्यका विकास पर्याप्त परिमाणमें न हो सका । आधुनिक गद्यके विधा और विषय वैविध्यकी तुलनामें भक्तिकालीन गद्य नगण्य प्रतीत होता है । प्राप्त गद्य भी अधिकतर ब्रज-पंजाबी या राजस्थानीसे प्रभावित और अरबी-फारसी या संस्कृतकी तत्समअर्धतत्सम शब्दावली युक्त तीन रूपोंमें- (१) तुकमय पद्याभास युक्त; (२) गद्य प्रधान (जिसमें पद्यकी क्षुल्लकता) या पद्य प्रधान (जिसमें पद्यकी बहुलता)-हों; (३) शुद्ध (पूर्ण) गद्य रूपमें-दृष्टिगोचर होता है । रीतिकालमें भी गद्य विषयक परिस्थिति इससे अधिक प्रगतिशील नहीं है । हिन्दी साहित्यका इतिहास'संपा.डॉ.नागेन्द्र-पृ.४१९ से ४२१ पर किये गये “खडीबोली गद्य" के विकासकी चर्चासे फलित होता है कि
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