________________
भ्रामक-मिथ्या प्ररूपणाका मधुरतासे प्रतिकार रूप खंडन किया है, जो कुछ रमूजके साथ पाठकको सत्यकी प्रतीति करवाता है ।।
भ.श्रीमहावीरजीकी प्ररूपणासे विपरित सिद्धान्ताधारित जैनधर्मकी अनेक शाखा-प्रशाखाओंका विवेचन करते हुए भव्य प्राणियोंको मनुष्य जन्मकी दुर्लभता चिह्नित करते हुए उसकी उपयुक्तताको मधुर भाषामें व्यक्त करके प्रेरणा करते हैं- “ऐसे कुमतियोंके मतोंके आग्रहसे दूर होकर हेयोपादेयादि पदार्थ समूहके परिज्ञानमें जीवको प्रविण होना चाहिए, और जन्म, जरा, मरण, रोग, शोकादिकों करके पीड़ितको स्वर्ग-मोक्षादि सुख संपदके संपादन करणेमें अबंध कारण ऐसा धर्मरत्न अंगीकार करना उचित है, क्योंकि इस अनादि अनंत संसार समुद्रमें अतिशय करके भ्रमण करनेवाले जीवांको प्रथम तो मनुष्य जन्म, आर्यदेश, उत्तम कुल, जानि-स्वरूप, आयु पंचेन्द्रियादि सामग्री संयुक्त पावणा दुर्लभ है । तहां भी मनुष्यपणेमें अनर्थका हरणहार-सत्-धर्म पावणा अति दुर्लभ है, जैसे पुण्यहीन पुरुषको चिंतामणी रत्न मिलना दुर्लभ है ।"५०. इस प्रकारके मधु-रस-सिकरोंकी वर्षा उनकी कृतियोंमें स्थान-स्थान पर प्राप्त होती है । विशेषतः गंभीर और कठिन विषयोंको सरल और सहज-लोकभोग्य बनाने हेतु उन्होंने इस मधुर भाषाका प्रयोग किया है जो उनकी औपपातिक बुद्धि, संप्रेषणीय कौशल और विनोदप्रिय प्रकृतिके अनुरूप ही है । प्रथम जैन हिन्दी लेखकः-- हिन्दी भाषा साहित्यके आदिकालसेजैन साहित्यकी श्री वृद्धि पर्याप्त प्रमाणमें उपलब्ध होती है, लेकिन आदिकालीन और उसके परवर्तीकालीन अन्य साहित्यकार सदृश जैन कृतिकारोंकी प्रवृत्ति भी पद्यकी ओर ही विशेष थी-जो साहित्यको कंठस्थ रखनेकी जैन संस्कृतिकी प्रणालिकाके लिए अधिक उपयुक्त और सरल थी । मध्यकाल तक आते आते हिन्दी परिवारकी भाषाओंमें गद्य साहित्यका उन्मेष सर्व प्रथम राजस्थानीमें-तेरहवीं शताब्दीमें: ब्रज या दक्खिनीमें-चौदहवीं या सोलहवीं शताब्दीमें; खड़ी बोलीमें-सत्रहवीं शताब्दीमें; अवधि और बनारसीमें-अठारवी शताब्दीमें दृष्टिगोचर होता है-जिनमें साहित्यिक सौष्ठवकी न्यूनता और गंभीरार्थवाले-चमत्कार रहित शब्द योजनाकी बहुलता युक्त, तुकबंदी और काव्यात्मक शैली प्रधान ललित या अललित, मौलिक या अमौलिक, धार्मिक या व्यावहारिक गद्य रचा गया, जो विशेषतः जैनधर्म शिक्षा प्रदानके महदुद्देश्यको समाहित किये हुए था ।
तत्कालीन साहित्य रूपोंमें ऐतिहासिक इतिवृत्तोंको उजागर करनेवाली वंशावली, गुर्वावली, पट्टावली, पीढ़ीयावली, प्रश्नोत्तर, वचनामृत, पत्रादि अललित-मौलिक-गद्य साहित्य रूप; एवं कथा, बात (वार्ता) वर्णन, चरित्र, वचनिकादि ललित-मौलिक-गद्य साहित्य रूपः तथा अमौलिक गद्य रूपोमें व्याख्यात्मक या अनूदित गद्य-जैसे बालावबोध, वृत्ति, अवचूरि, टबा, तिलक, वार्तिक, टिप्पण, टीका, तर्जुमा, तफ़सीर आदि शीर्षकान्तर्गत साहित्य प्राप्त होता है । जिनके प्रतिपादित विषय होते थे-धर्म, दर्शन, अध्यात्म, चिकित्सा, ज्योतिष, भूगोल, खगोल, शकुनशास्त्र, व्याकरण, गणित आदि । यह स्पष्ट ही है कि मध्यकालीन अमौलिक वाङ्मयकी बनिस्बत मौलिक साहित्यकी विशालता सिमित ही है। जिसकी परवरिश प्रधानतः धार्मिक एवं सांस्कृतिक आंचलमें हुई । इसके अतिरिक्त भक्तिकालीन, धार्मिक साहित्यकी अनेक संस्कृत-प्राकृत रचनाओंका गुजराती-मारवाड़ी आदि भाषा रूपोंमें बालावबोध, टबा, वृत्ति, अवचूरि आदि अमौलिक व्याख्या साहित्य उपलब्ध होता है ।
इस प्रकार मध्यकालीन पारलौकिकतासे अत्यन्त आच्छन्न और मानवजीवनके इहलौकिक परिवेशसे किनारा करनेवाले आध्यात्मिक या भक्त साहित्यकारोंके प्रत्युत अर्वाचीनकालीन साहित्यकारोंने परिवर्तित युगचेतनाके नूतन इहलौकिक पर्यावरणमें अधिक सतर्क बनकर सुधार-परिष्कार युक्त नूतन विचार प्रवाहके बल पर धार्मिक. सांस्कृतिक और साहित्यिक चिंतनधाराओंको पुनराख्यायित करके आधुनिक कालमें धर्म-दर्शन-साहित्य-कलादिके प्रति नये अभिगमका आविर्भाव किया । परिणामतः उन्नीसवीं शतीके उत्तरार्धमें उस नूतन आविर्भावके साथ आधुनिक साहित्य चेतना बृहत्तर रूपमें मानवीय-भौतिक-सुखदुःखके साथ विशेष रूपसे जुड़ी । इस अर्वाचीनविकासशील ऐतिहासिक प्रक्रियासे प्रभावित साहित्यिक विधा एवं भाषा भी परिवर्तित होते होते परिष्कृत
36
चा
।
(31)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org