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________________ "रीतिकालीन खड़ीवोली गद्य अधिकांशतः टीकानुवादोंके रूपमें प्राप्त होता है। जिनमें जैन गद्य साहित्यकारोंका विशिष्ट योगदान रहा है । मध्यकालीन खड़ीबोलीके विशिष्ट जैन गद्यकार टोडरमलजी, दीपचंदजी, दौलतरामजी (वसवावाले), इन्दौरवासी दौलतरामजी, टेकचंदजी, अभयचंदजी आदिके साहित्यमें विविध महापुरुषोंकी जीवनी पर वचनिकाओंकी रचनायें और अखयराज, श्री जिन-समुद्र सूरिजी आदिकी टीकायें-टिप्पणियाँ आदि स्वरूपोंमें दार्शनिक-सैद्धान्तिक, भूगोलखगोल, ज्योतिष-गणितादि मौलिक अमौलिक रचनायें समाहित होती हैं, जिनकी भाषा ब्रज या पंजाबी-राजस्थानी मिश्रित खड़ीबोली है ।" आधुनिककालमें-उन्नीसवीं शताब्दीमें-सामाजिक, राजकीय, आर्थिक क्षेत्रोमें अंग्रेजोंकी नूतन व्यवस्थाके कारण आर्थिक वर्ग विभाजन और जातीय प्रथादिके संघर्षों के बीच होनेवाले अर्वाचीन आविर्भावोंका उद्भव हुआ, जिसका असर साहित्य और भाषा पर होना अनिवार्य था । एक ओर राष्ट्रीय एकताके आंदोलनके परिणाम स्वरूप जागरणकी नयी लहरकी भावाभिव्यक्ति सक्षम भाषाका संबल हूंढ रही थी। दूसरी ओर उन्नीसवीं शती पर्यंत हिन्दी खड़ीबोली अपना स्वस्थ परिष्कृत एवं परिनिष्ठित स्वरूप निर्माण नहीं कर सकी थी, फिर भी स्थिरत्वकी ओर पुरुषार्थी एवं प्रगतिशील अवश्य थी । इन दोनों परिस्थितियोंने हिन्दी भाषाकी नवीन उद्भावना पर महत्त्वपूर्ण असर किया । भारतकी स्वतंत्रता पश्चात् हिन्दीको राजभाषा बनाया गया और उसके क्षेत्रको विस्तृत करते हुए, उसकी लिपिमें परिष्कार करते हुए, एवं उसके शब्द समूहको वृद्धिगत करते हुए हिन्दीको राष्ट्रभाषाका प्रतिष्ठित स्थान देकर सम्मानित किया गया । वर्तमानमें उसके विकसित रूपकी तेजोमय भास्वरतामें उसके परिमार्जन युगके दिदारका खयाल तक आना दुभर है-जब न गद्यका प्रचार था, न भाषाका विकास या समृद्धि, न शैलीकी स्थिरता । भाषाको कोमल, मनोहर, प्रभावशाली, रोचक ओर स्फूर्तिलापन प्रदान हेतु अन्य भाषाओंके शब्द, क्रिया रूपों, कारक रूपों, वर्ण विन्यास, उच्चारण प्रयोग आदिका उदारता पूर्वक हिन्दीमें स्वप्रकृत्यानुसार अन्वय किया जा रहा था: जिनमें प्रचलित संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, उर्दू, अरबी-फारसी आदि भाषाओंकी प्रधानता स्पष्ट रूपसे दर्शित होती है । श्री आत्मानंदजी म.सा.का हिन्दी साहित्य क्षेत्रमें पदार्पण उसी, क्रिया-कारकादिके रूप स्वनिक परिवर्तन, अन्य भाषाभाषी शब्द ग्रहण आदिके कशमकशकालमें हुआ था । अतः आपने तत्कालीन परिस्थितियाँनुसार अपनी साहित्यिक भाषा-(खड़ीबोली)में निजी मातृभाषा-पंजाबी एवं विचरण क्षेत्रोंकी अन्य भाषायें-गुजराती, राजस्थानी, ब्रज, अवधि, उर्दू आदिका और तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्यानुसार संस्कृत-प्राकृतके तत्सम प्रयोगोंका मिश्रण किया है । क्योंकि उनके साहित्यकी भाषा विषयक लेखमें श्री बनारसीदासजीने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा है -“जिस भाषामें वे अपना उपदेश देते थे, उसी में ही उन्होंने साहित्य सृजन भी किया।" “जैन तत्त्वादर्श" ग्रन्थके प्रथम संस्करणसे प्राप्त कईं विशिष्टतायें इस विचारकी पुष्टि करती है । उपदेशकोंकी प्रायः ऐसी भाषा प्रवृत्ति वर्तमानमें भी प्राप्त होती है । विशेषतः जैन ललित वाङ्मयके मूल स्रोत रूप श्री अरिहंत परमात्माकी भक्ति-गुणानुवाद-चरितानुवाद एवं अन्य क्रियानुष्ठानादिके उपदेश और अललित अथवा दार्शनिकसैद्धान्तिक, ज्योतिष-गणित व्याख्यादि साहित्य सरिताके मूलोद्गम रूप श्री वीतराग-सर्वज्ञ देव द्वारा प्रवाहित वाणी निर्झर अपने असामान्य गुणोंसे आप्लावित, अर्थात् प्रमुख रूपसे अर्थगंभीरता, औदार्यता, मधुरता, सरलता, सात्त्विक शिष्टता, हृदयंगमता, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावमें प्रस्तावौचित्यता, तत्त्वनिष्ठादि प्रशस्य गुणालंकृत होते हैं । भगवंतके चरण-चिह्नों पर ही चलनेवाले और उनकी वाणीको वाङ्मय या प्रवचन द्वारा जन-जनमें प्रसारित करके चिलकाल पर्यंत प्राणवान बनाये रखनेमें पुरुषार्थी, उनके अंतेवासी (प्रभावक साधु) भी अपनी विहार स्थलीमें प्रयुक्त भाषा व बोलियोंसे सुपरिचित होते हैं। क्योंकि जिनाज्ञाश्रित उन आचार्य-साधु प्रवरोंकी हार्दिक तमन्ना होती है, श्रोतागण (पर्षदा)के अनुकूल वाणी द्वारा समाज कल्याणका ध्येय साधनेकी। श्री आत्मानंदजी म.ने भी अपने साहित्यमें इसी परंपराका पालन करके राष्ट्र-भाषाके प्रारम्भिक विकासमें अपना योगदान दिया है । इनकी परिमार्जित शैलीके अंतर्गत शब्द (संज्ञा) प्रयोग, क्रियादिके कुछ उदाहरण प्रस्तुत है-यथा (33) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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