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अवश्य प्राचीन हिन्दीके प्राप्त होते हैं फिरभी, उनकी भाषा तत्कालीन साहित्यकी समकक्ष भाषागत परिनिष्ठित सभी साहित्यिक वृत्ति-प्रवृत्तियाँ लिए हुए हैं । तत्सम्बन्धी जैन तत्त्वादर्श' पूर्वार्धके 'प्रासंगिक वक्तव्य' में डॉ. बनारसीदासजीने आचार्य प्रवरश्रीकी भाषा परत्वे अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि-“प्रस्तुत ग्रन्थकी भाषाके साथ यदि निश्चलदासजीके 'विचार सागर', और 'वृत्ति प्रभाकर' की भाषाको मिलान करें तो बहुत समानता नज़र आयेगी.....भाषा सौष्ठवमें भी कोई क्षतिनज़र नहीं आती.....श्री चिद्घनानंदजी कृत 'भगवद्गीता' और 'आत्मपुराण'की रचना शैली देखें । इनमें वाक्य रचना और विषय निरूपणमें एक ही प्रकारकी पद्धतिका अनुसरण किया गया
गुणगतः-- उपदेशात्मक शैली - श्री आत्मानंदजी म.साधु थे-धार्मिक नेता थे, अतः जीवनोत्थान (आत्मकल्याण), धर्मोन्नति और समाजोत्कर्षके लिए उनके दिलमें असीम तमन्नायें हिलोरें ले रही थी, जिसके लिए उन्होंने माध्यम बनाया था अपनी लेखिनीको और वाणी-विलास रूप प्रवचनोंको । यही कारण है कि उनके साहित्यमें हमें स्थान-स्थान पर उपदेश प्रसाद प्राप्त होता रहता है । कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं- श्री अरिहंतदेवाधिदेवकी अंगपूजानंतर अग्रपूजा-भक्ति-भावसे और द्रव्यसे श्रावककोः एवं भावसे साधुको करनेका विधान करते हुए उपदेश देते हैं- “गीत-नृत्य, जो अग्रपूजामें कहे हैं, सो भावपूजामें भी बन सकते हैं । सो गीत, नृत्य, मुख्यवृत्ति करिकें तो श्रावक आप करें, जैसे निशीथचूर्णिमें उदायन राजाकी राणी प्रभावतीका कथन है । पूजा करणेके अवसरमें श्री अर्हतकी तीन अवस्थाकी कल्पना करें-स्नान करती बखत छद्मस्थ अवस्थाकी कल्पना करें, तथा आठ प्रातिहार्यकी शोभा करतां केवली अवस्थाकी कल्पना करें, तथा पर्यकासन-कायोत्सर्ग देखके सिद्धावस्थाकी कल्पना करें । इसमें छद्मस्थावस्था तीन तरेकी कल्पे, एक जन्मावस्था, दूसरी राज्यावस्था तीसरी साधुपणेकी अवर्थ। तहां स्नानकी बखत जन्म अवस्था कल्पें, माला, फूल, आभरण पहिराने वखत राज्यावस्था कल्पें, तथा दाढ़ी-मूंछशिरके बालोंके न होनेसे साधु अवस्था विचारें-इनमें साधु, केवली-मोक्षावस्थाको वंदन करें ।"
व्यापार शुद्धि आदिकी प्ररूपणा करते हुए लिखतें हैं, कि, जो अर्थ चिंताका स्वरूप निर्दिष्ट किया है, वह अनुवाद रूप है क्योंकि धनोपार्जनकी चिंता इस संसारमें स्वतः सिद्ध है । वहाँ शास्त्रकारका उपदेश अनावश्यक है, फिर भी जो निरूपण किया है वह विधेयात्मक है, क्योंकि शास्त्रोपदेश केवल अप्राप्त अर्थ (मोक्ष)की प्राप्तिके लिए होता है, शेष सर्व अनुवाद रूप है । अतः आजिविकाके सात प्रकारोंकी चर्चा करनेके पश्चात् श्रावकोंकी मुख्यवृत्तिका विवेचन करते हुए प्रेरणा करते हैं- “जहाँ धर्म सामग्री होवे, तिस क्षेत्रमें व्यापार करें......कदाचित् अपने पास धन हानि हो जाये-धनकी अप्राप्ति हो जाये तो भी खेद न करें, क्योंकि खेदका न करणां, यही लक्ष्मीका मूलकारण है । बहुत धन जाता रहें, तो भी धर्म करणेमें आलस न करें, क्योंकि संपदा अरु आपत् बड़े आदमीओंको ही होती है, सदा एकसरिखे दिन किसीके नहीं जाते हैं । पूर्व जन्म-जन्मांतरके पुण्यपापोदयसे संपदा विपदा होती हैं, इस वास्ते धैर्यका आलंबन श्रेष्ठ है। यदा अनेक उपाय करनेसे भी दरिद्र दूर न होवे, तदा किसी भाग्यवानका आधार लेवें । जेकर बहुता धन हो जावे तदा अभिमान न करें, क्योंकि लक्ष्मीके साथ पांच वस्तु होती हैं- निर्दयत्व, अहंकार, तृष्णा, कठोरवाणी
और वेश्या. नट-विटादि नीच पात्रोंकी वल्लभता-इस वास्ते बहुत धन हो जावे तो इन पांचोको अवकाश न देवें।४३. विवरणात्मक शैली- चौदह गुणस्थानकके विवरणानन्तर निःकर्मा (सर्व कर्मरहित) आत्मा उसी समय (जिस समय सर्वकर्म क्षय हुए उसी एक ही समयमें) किस तरह लोकांतमें पहुँच जाता है, इस आशंकाका प्रत्युत्तर देते हुए दृष्टान्नपूर्वक आत्माका ऊर्ध्वगमन विवरित करते हैं-“सिद्ध-कर्मरहित-की ऊर्ध्वगति होती है, कस्मात्' किस हेतुसे ?....जैसे कुंभकारका चक्र पूर्वप्रयोगसे फिरता है, तैसे आत्माकी पूर्व प्रयोगसे ऊर्ध्वगति होती है । जैसे माटीके लेपसे रहित होने करके तूंबेकी जलमें ऊर्ध्वगति होती है, तैसे ही आत्माकी ऊर्ध्वगति होती है । जैसे एरंड फल बीजादि बंधनोंसे छूटा हुआ ऊर्ध्वगतिगामी होता है, तैसे ही कर्मबंधके विच्छेद होनेसे सिद्धकी भी ऊर्ध्वगति होती है । तथा जैसे अग्निका ऊर्ध्व ज्वलन स्वभाव है तैसे ही आत्माका भी ऊर्ध्वगमन स्वभाव है ४४.
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