________________
तिसका, तिसकाल, मैंनुं, मैंने, तैने, मुझे, तुझे, आदि; बहुवचनमें पंजाबीके आकारान्त क्रियापद एवं संज्ञाओंके रूप- करतियां, करनवालियां, जनातियां, होतियां, जातियां, लड़ीयां, किताबां, गुरां, बातां, गल्लां, लोकां, वाणीयां, बत्तीसीयां, धर्मा आदि; अब उपरोक्त प्रयोगोंके श्री आत्मानंदजी म,के साहित्यमें-वाक्यप्रयोग रूपके कुछ उदाहरण प्रस्तुत है. “तद पीछे गुरु वासां (वासक्षेप)को सूरिमंत्रसे अभिमंत्रके;” “चरम जिनकी स्तुतिवालियां होवें तिनको वर्द्धमान स्तुति कहते हैं।"; "शुभ प्रकृतियाँ भी अस्मदादिकोंमें मोह सहकृत ही अपने कार्यको करती देखने में आती हैं"; “आद्य पक्ष तो है नहीं,"; “अथ गुण लिखते हैं ।"; “स्वभावमें अन्यथा जो होवें सो विभाव”, “तिन तिन पर्यायोंको प्राप्त होता है वा छोड़ता है, अथवा अपने पर्यायों करके ही प्राप्त होवें वा छूटे अथवा द्रुसत्ता, तिसका ही अवयव वा विकार सो द्रव्य ।"; “जब बंध मोक्षका अभाव होवेगा ।"; “समय-समयप्रति पर-अपर पर्यायोंमें गमन करना"; “अब हमको जो कछुक कहना है ।"; "श्री परमगुरु कहते हैं, भो जैन ! तूने अतिमूढ़ने यह क्या कहा ?"; "तद पीछे कुमारिल भट्टके पास वार्तिक करवानेकी इच्छा उत्पन्न भई ।"; "कालमें भी यह वक्ष्यमाण हानी होवेगी सो ही बतावे हैं । समय समयमें अनंते अनंते द्रव्य पर्यायोंके वर्णादि शब्दसे वर्ण, रस, गंध, स्पर्श जे जे शुभ-शुभतर हैं उनोंकी हानी होगी, परंतु अहोरात्र तावन्मात्र ही रहेगा..... इसवास्ते असंख्य काल पहिले बड़ी अवगाहनाका होना संभवे है ।": "उन्होंने जो अर्थ करा है सो अपनी बुद्धिसे करा है, न तु स्वबुद्धि उत्प्रेक्षित । जेकर स्वबुद्धि कल्पनासे अर्थ करें जावें तब तो असली सर्व सच्चे अर्थ व्यवच्छेद हो जायेंगें"; “जिस प्रतिमाका, स्थान-स्थित, ही का स्नपन कराया जाये तिसके वास्ते सर्व कुछ तहां ही करना"; "इस वृत्तके सर्व पुष्पांजलियोंके बिचाले धूपोत्क्षेप करना"; “मारणे योग्य नहीं हैं तिनको नहीं मारणा"; "गृह्य गुरुके पगोंमें पड़े"; “एकदा प्रस्तावे कृष्णजी तलाबके कांठे ऊपर तप तपते थे । तहाँ कोई तापसनी स्नान करती थी.....तापसनीने तैसा जानकर शाप दे के लोचन सरोग करा"; "जिस तिस मतके शास्त्रमें, जिसतिस प्रकार करके, जिस तिस नाम करके, जो तूं है सो ही तूं है परं यदि जेकर दूर हो गये हैं द्वेष, राग, मोह, मलिनतादि दूषण तो, सर्व शास्त्रोंमें तूं जिस नामसे प्रसिद्ध है, सो सर्व जगे तूं एक ही है, इस वास्ते हे भगवन ! तेरे ताई नमस्कार होवे ।"; “जो आपही कामाग्निके कुंड़में प्रज्वलित हो रहा है, तिसमें कभी ईश्वरता नहीं हो सकती, इस हेतुसे, जो राग रूप(स्त्री) चिह्न करके संयुक्त है सो देव नहीं हो सक्ता है । पुनः जो द्वेष चिन(शस्त्र) करके संयुक्त है, वो भी देव नहीं हो सक्ता है ।" “और वेदोंकी उत्पत्ति जैनमतवाले जैसे मानते हैं तैसे 'जैन तत्त्वादर्श' नामक पुस्तकसे,.....ब्राह्मण लोक जिस तरें वेदकी संहिता उत्पन्न भई मानते हैं, तैसे महीधर कृत यजुर्वेद भाष्य और अज्ञान तिमिर भास्कर ग्रंथसे जान लेनी.....यह किंचित्मात्र ग्रंथ समीक्षा विषयक लिखा ।"; “दुष्यंतका लड़का भरते गंगाका तीरपर पंचावन अश्वमेघ किया है । ए भरतका महाकर्म दूसरा किने बी नहीं किया ।"; “ऐसी ऐसी कथा लिख छोड़ी है, तिससे कर्मका प्रयोजन बांधा है ।”; “तिनको लोगोंने बहुत धिक्कार दिया । तिससे वेदोंकी पुस्तक ढांक छोड़नेकी जरूरत हो गई, और कितनीक वेदोक्त विधियाँ त्याग दीनी ।"; “अनेक तरेकी कथा, प्रशंसारूप लिखी है ।"; “कहां तक लिखें, बुद्धि जुवाब नहीं देती-यह दयानंदजीकी वेदोक्त मुक्तिका हाल है। और गौतमोक्त मुक्तिमें पूर्वोक्त दूषण नहीं, क्योंकि गौतमजी तो आत्माको सर्व व्यापी मानते हैं, इसवास्ते 'आणा' और 'जाणा' किते भी नहीं ।”, “तिस प्रकृति सेंती बुद्धि उत्पन्न होती हैं ।"; "यह सत्त्वादिक, परस्परोपकारी तीन गुणों करके सर्व जगत व्याप्त है ।"; “उसकू परलोकमें कष्ट परंपरा पावणी बहुत सुलभ है, औ जो सुकृत करेंगें उनको भवांतरमें सुख यौवनादि पावणां सुलभ है।"; “अयोगी अंत समयमें जोनसी प्रकृति क्षय करके जो कुछ करता है,"; “आत्माके संयोगसे प्रगट भया है, अंग रागादिकोंको प्रकाश परिणाम शरीरस्थ होनेसे, खद्योत देह परिणामवत् तथा आत्मा संयोगपूर्वक शरीरस्थ होनेसे ज्वरोष्मवत्, अंगारादिकोंमें भी उष्णता है।" संरचना प्रविधि - उनकी भाषामें वर्तमानमें प्रयुक्त की जानेवाली परिष्कृत हिन्दीसे थोड़ीसी विषमता होने परभी विशिष्ट रूपमें समानता भी परिलक्षित होती है । अतः यह स्पष्ट है कि उनके साहित्यमें कुछ उदाहरण
(27)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org