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________________ प्रतिपादनात्मक शैली- इस संसारकी सर्वश्रेष्ठ सारभूत, निःसीम और आत्यंतिक सुखमय, स्वरूपावस्थान रूप मोक्ष प्राप्तिके मार्ग, स्थानोंके लिए प्रयत्न करने हेतु मनुष्य उस समय आकर्षित होता है । जब उसे मोक्षका स्वरूप समझ लेनेके कारण उसकी उपादेयता सुहाती है, उसके लिए उसके दिलमें एक ललक पैदा होती है । अतः सर्वज्ञ प्ररूपित मोक्षकी उपादेयताका प्रतिपादन करते हुए आचार्य भगवंत लिखते हैं- “सर्व वादियोंकी कही मोक्ष ठीक नहीं, कारण कि (१) जब अत्यन्त अभावरूप मोक्ष होवे तब तो आत्मा ही का अभाव हो गया, तो फेर मोक्षफल किसको होवेगा ? ऐसा कौन है, जो आत्माके अत्यंताभाव होनेमें यत्न करें ? (२) जो ज्ञानाभावको मोक्ष मानते हैं, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि जब ज्ञान ही न रहा, तब तो पाषण भी मोक्षरूप हो गया, तो ऐसा कौन प्रेक्षावान है, जो अपणी आत्माको जड़-पाषाण तुल्य बनाना चाहे ? (३) जो सर्वव्यापी आत्माको मोक्ष मानते हैं अर्थात् जब आत्माकी मोक्ष होती है, तब आत्मा सर्वव्यापी मोक्षरूप हो जाती है । यह भी कहना प्रमाणानभिज्ञ पुरुषोंका है, क्योंकि आत्मा किसी प्रमाणसें भी सर्व लोकव्यापी सिद्ध नहीं हो सकती है । इसकी विशेष चर्चा देखनी होवे तदा 'स्याद्वाद रत्नाकरावतारिका' देख लेनी (४) जो मोक्ष होकर फेर संसारमें जन्म लेनां, फेर मोक्ष होनां-यह तो मोक्ष भी काहेकी ? यह तो भांड़ोंका सांग हुआ । इस वास्ते यह भी ठीक नहीं । (५) जो मोक्षमें स्त्रियोंके भोग मानते हैं, सो विषयके लोलूपी है । तथा जो खरड़ ज्ञानीने मोक्ष कही है सो अप्रमाणिक है, किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है । इस वास्ते अहंत सर्वज्ञने मोक्ष कही है सो निर्दोष है और उपादेय है जो सत्रूप, ज्ञान-दर्शनरूप, असार संसारमें सारभूत, निस्सीम-आत्यंतिक सुख रूप, अनंत अतींद्रियानंद अनुभव स्थान, अप्रतिपाति, स्वस्वरूपावस्थानरूप है।"४५. अनुवादात्मक शैली- अनुवादका शब्दार्थ या लक्षणार्थ है- तरजूमा, भाषांतर और उसका ध्वन्यार्थ होगाअनुसरण (अन्यके अनुसार वाणी-वर्तन) । आचार्य प्रवरश्रीके साहित्यमें दोनों अर्थ सार्थकता प्राप्त करते हैं। आपश्रीने अपने तत्त्व निर्णय प्रासाद' ग्रन्थमें तृतीय, चतुर्थ, पंचम स्तंभमें श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.तथा श्री हेमचंद्राचार्यजी म.सा. के अयोग व्यवच्छेद द्वात्रिंशिका', 'महादेव स्तोत्र', और 'लोक तत्त्व निर्णय के अनुवाद प्रस्तुत किये हैं । इनके अतिरिक्त उनकी विचारधाराओं और प्ररूपणाओंके अनुरूप ही अनेक सैद्धान्तिक विषयोंको अपने साहित्यमें स्थान दिया है, जो जैन साहित्यके गौरवको अलंकृत करने योग्य बन पड़ा है । विश्लेषणात्मक शैली- विश्लेषण अर्थात् वियोजन- किसी भी पदार्थ या घटक अथवा विचारधाराको विघटितपृथक् पृथक् करके उसके विभिन्न रूपोंको समझाना । आचार्य प्रवरश्रीने कुछ आगमिक तथ्यों एवं प्ररूपणाओंको समझनेमें सरल बनाने हेतु और याद करनेमें तथा याद रखने में सहज बनाने हेतु इस शैलीका उपयोग अपने ग्रन्थोंमें किया है । यथा- 'बृहत् नवतत्त्व संग्रह' ग्रन्थमें कर्मविज्ञान, चौदह गुणस्थानक, लेश्यादि अनेक कठिन, संश्लिष्ट एवं संक्लिष्ट विषयोंको पृथक्करण करके तालिका स्वरूप बनाकर सरल रूपमें प्रस्तुत किया है । उसी प्रकार जैन तत्त्वादर्श' ग्रन्थमें वर्तमान चौबीसीके चौबीस तीर्थंकरोंके जीवनतथ्योंको संक्षिप्तमें तालिका बनाकर इस तरह पेश किया है कि, याद रखनेके लिए तो आसान बन ही गया है, लेकिन उनके परस्पर तुलनात्मक अध्ययनके लिए भी सुविधाजनक और सुगम हो गया है । इस तालिकाधारित संस्कारित तालिका पर्व प्रथममें प्रस्तुत की गई है । जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर' ग्रन्थमें प्रश्न-७४ के प्रत्युत्तर रूप पैंतालीस आगमके पंचांगी स्वरूप-नाम, श्लोक प्रमाण, विषय निरूपणादि; प्रश्न-१५३ के प्रत्युत्तर रूप चौदह पूर्वकी पद संख्या, विशालता एवं विषय निरूपणके स्वरूपको; एवं प्रश्न-१५४ के प्रत्युत्तरमें 'पंच परमेष्ठि'का इतर दर्शनोंमें स्वरूप, प्रश्न-१५९ के प्रत्युत्तरमें गुरुका स्वरूप और उनकी योग्यायोग्यता एवं प्रश्न-१६० के प्रत्युत्तर में विश्वके समस्त धर्मोका पांच वर्गोंमें वर्गीकरण करके उसके स्वरूपको विभिन्न तालिकाओंके माध्यमसे निरूपित करके, बालजीवों पर इतना महान उपकार किया है कि उन विषयोंको समझना, याद रखना, तुलनात्मक अध्ययन करना-एक ही दृष्टिमें एक ही समयमें संपूर्ण विषयको खोलकर रखनेमें अत्यन्त अनुकूलता हो गई है । (29) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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