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________________ आंतकके वातावरण और विषय-कषायके निर्मूलन हेतु प्राणातिपात विरमण (अहिंसा) व्रतको सक्षम बताया तो द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ व्रत-अमृषा, अस्तेय और अब्रह्म-त्यागवत--के पालनसे व्यक्ति चारित्रनिष्ठ बनता है और अंततः समाजके नैतिक मूल्योंका ऊर्वीकरण होते हुए समाजमें स्नेह, स्वार्थत्याग, और विश्वासका सुंदर और स्वस्थ पर्यावरण उपस्थित हो सकता है । साम्यवाद, साम्राज्यवाद, समाजवादादिके पचड़ोंसे पल्ला छूडानेके लिए और निर्धन-धनवानोंके मध्यकी गहरी खाईको समतल करनेके लिए केवल अपरिग्रह या परिग्रह परिमाणव्रत-सिद्धान्तका आचरण ही उपयुकत है । इसके अतिरिक्त गृहस्थका बारहवाँ व्रत 'अतिथि संविभाग की प्ररूपणा करते हुए साधर्मिक वात्सल्य और सुपात्र दानरूप “अतिथि संविभाग की महत्ताको दर्शाया है । साधर्मिक वात्सल्यकी भाव-ज्योत प्रज्ज्वलित करनेवाला "अतिथि संविभाग 'व्रत श्रावकके लिए आवश्यक फर्ज़ बन जाता है । प्रतिदिन कर्तव्य-'षड़ावश्यक (प्रतिक्रमण विधि)के समय समग्र दिनमें या रात्रिमें लगनेवाले पापोंके प्रायश्चित्त (आलोचना) करते वक्त श्रावक अपने इस कर्तव्यमें उदासीनता या बेपरवाहीको आत्मसाक्षीसे निंदता है-यथा __ “साहुसु संविभागो, न कओ तव चरण करण जुत्तेसु । संते फासुअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि"३६ शेष छ व्रतोंके पालनसे उपरोक्त व्रतोंकी पुष्टि होते हुए आत्माका कल्याणकारी-निरामयपंथ पर प्रस्थान संभवित होता है । इन सभीका निरूपण करते समय आचार्य प्रवरश्रीके नयनपथमें, समाजमें दया, करुणा, संतोष-शील, संयम, परोपकार, आराधना-साधनादि उत्तम गुणोंके आविर्भाव-सद्भाव और स्थिरीकरणकी अपेक्षा ही झाँक रही थी । उनके अभिप्रायसे शिक्षा ग्रहणसे ही अज्ञानताको और स्वतंत्र एवं स्वस्थतापूर्ण विचारधारासे परंपरित कुरूढ़ियों-रिवाजों एवं प्रथाओंका निवारण हो सकता है । इसके अतिरिक्त इस मानवभवके साफल्यको संभवित बनानेवाले धर्म पुरुषार्थको निरूपित करते हुए आत्म-कल्याणकारी मोक्षमार्गके प्रमुख साधन रूप स.दर्शन, स-ज्ञान और स.चरित्रकी आराधनाको प्रचलित करके समाज पर जो उपकार किया है, वह अवर्णनीय है । श्री सुशीलजीके शब्दोमें, “जैनसंघके हित एवं श्रेयार्थ अपने व्यक्तित्वको तिलांजलि देनेवाले-उससे तादात्म्य साधनेवाले आत्मारामजीम.सदृश विरला महापुरुष वर्तमान जैन समाजने संभवतः प्रथम और अंतिम बार ही देखा था । जैन समाजके प्रबल पुण्यने ही उन्हें आकर्षित किया था । मानो कोई देवदूत, दीन-हीन प्राणियोंका त्राता-जीवन विधाता-संत संघका जाज्वल्यमान नक्षत्र-जैन संघके गगनमें अचानक उदित हुआ हों, और अपना जीवनकार्य पूरा करके कर्तव्यके मैदानसे चूपचाप अस्ताचलकी ओटमें चला न गया हों ।।३७ उनके साहित्यसे मानो स्वर उठते हैं-'साहित्य जनताके सामाजिक और धार्मिक जीवनकी सेवाके लिए ही होता है ।जो उन्होंने बड़ी तटस्थतासे अपनी वाणी और वर्तनसे प्रमाणित कर दिखाया था । श्री आत्मानंदजी म.के साहित्यकी भाषाशैलीः-भाषा परिचय--मनुष्य ज्ञानी है, बुद्धिमान है, चिंतनशील है; जिसके ज्ञान-बुद्धि एवं चिंतनका ठोस आधार है प्रथम इन्द्रिय बोध, तदनंतर होता है चिंतन और पश्चात् मनन; जिसे प्रस्तुत करती है भाषा । भाषाके माध्यमसे ही जैन दर्शनके "अनेकान्तवाद और स्याद्वाद'' जैसे द्वन्द्वात्मक संघर्ष विदारक चिंतनके तात्त्विक समन्वयी रूपको प्रस्तुत किया जा सका है । तदनुसार 'संसार स्थिर भी है और परिवर्तनशील भी । सांसारिक प्रक्रियाओंके समान भाषा भी कभी सापेक्ष स्थिरत्वके साथ संश्लिष्ट प्रवाहोंके रूपमें प्रवहमान होती रहती है । अतः भाषा, जो समाजके विकासका साधन है, सामाजिक विकासके साथ स्वयं भी विकासशील है, क्योंकि “भाषा ही विचारों और भावनाओंके आदान प्रदानका माध्यम होती है" ।३८. यथा-किसी एक समयमें उच्चवर्गीय संस्कृतिकी निधि तुल्य संस्कृत भाषा विचार-वहनका प्रबल माध्यम थीं, लेकिन भारतमें जब नये सांस्कृतिक और सामाजिक प्रवाहोंके आलंबनरूप नवीन भाषाओंका प्रचलन हुआ, तब वे आविर्भूत भाषायें पहलेसे भी अधिक विशाल मानव समुदायको प्रभावित कर सकीं, जिनमें शनैःशनैः चिंतनकी बारीकियोंको अभिव्यक्त करनेकी क्षमता (24) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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