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________________ भी सम्पन्न होने लगीं । मानते हैं कि अंग्रेजी विश्व भाषा है, फिरभी, किसी एक देशीय-एक भाषीय जातिकी अपेक्षा विश्वकी सर्व भाषाओमें संख्याकी अपेक्षा हिन्दीका स्थान अग्रीम ही माना जा सकता है"इस विशाल हिन्दी भाषी जनसमूहका जातीय गठन, उसकी जातीय भाषाका विकास, उसका सांस्कृतिक अभ्युत्थानादि की साहित्यिक प्रगति सारे देशकी प्रगतिकी महत्त्वपर्ण कड़ी है । समची मानवताके संदर्भमें भी हिन्दी भाषा और साहित्यने जैसी प्रगति की है, वैसी संसारकी बहुत कम भाषा और उनके साहित्यने की होगी"। ३९. साहित्यमें भाषागत परिवेश-साहित्य पर सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेशका जैसा प्रभाव और महत्त्व स्वीकार किया जाता है, भाषागत परिवेश भी उतना ही प्रभावक और महत्त्वपूर्ण होता है, जिनकी अपनी निजी विशिष्टतायें शैली निर्माणमें भी यथेष्ट योगदान प्रदान करती है । (१) विविध बोलियोंका प्रभाव- विशाल हिन्दी भाषी प्रदेशमें बोली जानेवाली अनेक बोलियोंमें बहुत श्रेष्ठ और लोकप्रिय साहित्य रचा गया है । इनके अतिरिक्त सभी बोलियोंका अपना लोकसाहित्य निधि भी अवश्य है, जो विविध जनपदोंकी वैविध्यता और समृद्धता समन्वित किये हुए हैं । उन समृद्ध बोलियोंके शब्द-संग्रह, संरचना और परस्पर अत्यधिक समानता हिन्दी भाषाको प्रभावित करती है । (२) उर्दू से समानता- नाम, सर्वनाम, क्रियापदादि मूल शब्द, कारक, वाक्य संरचनादि व्याकरणीक रूपादिमें अत्यधिक समानता हिन्दी और उर्दूके शिष्ट साहित्यिक रूपोमें भी प्राप्त होती है । (३) प्रादेशिक भाषाओंका प्रभाव- भिन्न भिन्न प्रदेशोमें विभिन्न भाषासे प्रभावित हिन्दीके अनेक रूप विकसित हुए, यथा-कलकत्तिया, बम्बइया, पटनिया, बनारसी, पंजाबी, राजस्थानी, मालवी, मेवाडी आदि (४) संस्कृत भाषा प्रभाव- स्वयंकी विकासशील और सृजनात्मक क्षमता होनेसे हिन्दी भाषा द्वारा बोलचालकी भाषाके अधिक नैकट्यवान-स्वीकृत साहित्य महत्त्वधारी संस्कृत भाषा रूपोंके आधार भी स्वजाति प्रकृत्यानुसार ग्रहण किया गया है ।(५) अंग्रेजी भाषा प्रभाव- इन सबके अतिरिक्त हिन्दी भाषा पर अंग्रेजीका प्रभाव-जिसे तत्कालीन भाषा प्रवृत्ति पर प्रायः नगण्य ही माना गया है-यथा-कुछ ऐसे शब्द ही प्रयुक्त हुए जिनके लिए हिन्दीमें शब्द ही न हों, जैसे-कॉलेज, कलक्टर, नोट, रेल. स्टेशन, मोटर, फूट-इंच इत्यादि इनके अतिरिक्त अन्य प्रयोगोमें अंग्रेजीकी बदौलत संस्कृत-प्राकृत तत्त्वों पर ही आधार रखा गया था। कुछ अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त विद्वान अवश्य विद्वत्ता प्रदर्शन-हेतु अंग्रेजी प्रयोग कर लेते थे; (प्रायः यही प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन वृद्धिगत होते होते वर्तमानमें सीमातीत हो रही हैं । लेकिन, तत्कालीन समाजमें उसे प्रशंसनीय नहीं माना जाता था। तत्कालीन हिन्दी भाषा-खडीबोलीकी प्रधानता--हिन्दी भाषाका प्रारम्भ वैसे तो चौदहवीं शतीसे माना जाता है, लेकिन उसका अपभ्रंश मुक्त-शुद्ध स्वरूप ई.स.१८००के आसपास ही विशेष रूपसे दृग्गोचर होता है; जिनमें लल्लुलालजीके प्रेमसागर' और 'राजनीति'; सदल मिश्रके 'चन्द्रावती'; मुंशी सदासुखलालजी 'नियाज़ के 'सुखसागर' और सैयद इन्शां अल्लाखांकी 'राजा केतकीकी कहानी' आदिका योगदान आधुनिक गद्य साहित्यके प्रारम्भक या जनक रूपमें माना जा सकता है । हिन्दी साहित्यके आधुनिक कालके आविर्भाव रूप, भारतेन्दु युगके पूर्व उन हिन्दी लेखकों और उनके साहित्यके संबंध आ.श्री रामचन्द्र शुक्लजीका अभिप्राय है- “मुंशी सदासुखलालजीकी भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊपन लिए थी, लल्लूलालमें ब्रजभाषापन और सदल मिश्रमें पूरबीपन था । राजा शिवप्रसादजीका उर्दूपन शब्दोंसे लेकर वाक्य विन्यास तकमें घूसा था। राजा लक्ष्मणसिंहकी भाषा विशुद्ध और मधुर तो अवश्य थी, पर आगरेकी बोलचालका पुट उसमें कम न था। भाषाका निखरा हुआ शिष्ट सामान्य रूप भारतेंदुकी कलाके साथ ही प्रगट हुआ ।४. यह भी कहा जा सकता है, कि हिन्दी साहित्यके विकासमें इन सभी साहित्यकारोंके साथ ईसाई मिशनरीयोंका योगदान भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता, यद्यपि उनका एकमात्र उद्देश्य ईसाई धर्म-प्रचार ही था । फोर्ट विलियम कॉलेजकी स्थापनासे भी हिन्दीकी उन्नतिमें यथासंभव सहायता मिली ।। भारतीय धर्म और दर्शन, सभ्यता और संस्कृति, आचार-विचार और व्यवहारादिके रक्षणार्थ एवं विदेशीय कुसंस्कारके प्रभावसे बचाव रूप होनेवाले धार्मिक और सामाजिक आंदोलनोंके उपक्रमके कारण (25) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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