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नामदारीकी झूठी प्रशंसाके चक्करोंसे बचनेका आदेश; अज्ञानता निवारण हेतु ज्ञान(शिक्षा) प्रचारादि यथार्थ पुरुषार्थकी प्रेरणा-आदिके प्ररूपक आचार्य प्रवरश्रीने अपने विचारोंको वाङ्मय द्वारा और वाणीको प्रवचनों द्वारा प्रकाशित करते हुए दोहरे उद्यम किये । स्वस्थ समाजकी ख्वाहिशको परिपूर्ण करने हेतु अपनी पैनी दृष्टिसे दृष्ट समाजकी हास होती जा रही नैतिकताका मूल्य पुनः स्थापित करने हेतु पुरुषार्थी अभिगम आज़माना प्रारम्भ किया । उनकी विचारधारानुसार स्वस्थ और सुखी समाजके लिए श्रेष्ठ मार्ग है ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा, धनवान-निर्धन आदिकी अंधकारमय भेदरेखाओंको धार्मिक एवं व्यावहारिक शिक्षा निःसृत अभेद दृष्टिके उज्ज्वल आलोककी अत्यधिक आवश्यकता है । किसी भी शिक्षित व्यक्तिका ज्ञानालोक उसे अन्योंके साथ प्यार-चाहतकी डगर पर कदम रखनेके लिए प्रेरणा देता है; विश्वके जीवोंको स्नेहासिक्त सरोवरमें स्नान करवाकर स्वच्छ और निर्मल आत्मीयताका निर्माण करनेमें सहयोगी बनता है, जिससे एक अखंडित समाजको स्वस्थ रूपसे खड़ा किया जा सकता है । क्योंकि सामाजिक संगठनमें वह सामर्थ्य है जो अन्योंके सामने स्वयंके मस्तिष्कको गौरवान्वित करके उन्नतता बक्षता है" इस नीतियुक्त सहजोक्तिको उन्होंने आत्मसात किया था । दूसरी ओर शिक्षाकी प्राप्तिसे दहेज़-वरविक्रय और कन्याविक्रयकी विकृतियाँ-बालविवाह, अयुक्त विवाहादि अनेक कुरूढियों-रिवाजों और अंधविश्वासका . निराकरण होनेकी संभावना प्रस्तुत की । समाजकी संगठितताके लिए उन्होंने एक नया ही अभिगम अपनाया था । विचरते विचरते जहाँ कहीं गये, और कहीं फूट देखी, कहीं मन-मुटावका अनुभव हुआ या कहीं संघर्ष पाया, तुरन्त ही दोनों पक्षोंके दिलको तसल्ली प्रदान करनेवाली युक्तयुक्तियोंसे समझाकर संगठित होनेके लिए उत्साहित कियायथा- तत्पश्चात् आपश्रीका आगमन लुधियानामें हुआ । यहाँके संघमें रही फूट और मतभेदकी दरारको पाटकर महाराजश्रीने श्री कलिकुंड पार्श्वनाथजीके मंदिर निर्माणकी योजना कार्यान्वित करवायी ।"३४ इसके अतिरिक्त वे मानते थे कि सामाजिक संगठनका निर्वाह अनुशासन बद्ध-शिस्तपालनसे ही हो सकता है, क्योंकि, अनुशासनविहिन, विघटित या तितर-बितर, उच्छृखल, बहुत बड़े समुदायका भी कोई महत्त्व नहीं । वह केवल जनसमूहकी भीइसे अधिक कुछ नहीं होता । शिस्तबद्ध, संगठित, व्यवस्थित समाज ही सामर्थ्यवान बन सकता है और विकासशीलता या प्रगतिशीलता प्राप्त कर सकता है-जैसे शिस्तबद्ध, अनुशास्ता-एक ही योद्धा विशाल जन समूहको नियंत्रित कर सकता है । उन्होंने जिस अनुशासनका आग्रह अपने समाजसे रखा है, स्वयंको भी अनुशासनकी डोरसे बाँधा है । इसी अनुशासनके पालनके आग्रहवश उन्होंने ढूंढ़क पंथ त्याग करनेके पश्चात्, अपने आप ही, स्वतंत्र रूपसे संविज्ञ सामाचारी नहीं अपनायी, लेकिन श्री बुद्धि विजयजी म.सदृश महात्माके चरणोमें स्वयंको समर्पित किया, उनका शिष्यत्व अंगीकृत किया । ज्ञानाध्ययनसे आगमाधारित पर्यवेक्षण करते हुए ढूंढ़क पंथकी भ.श्री महावीरके मार्गसे विपरितता ज्ञात होने पर भी जब तक श्री रत्नचंद्रजी म.सा.से परामर्श करके उसकी संमूर्छितताका निश्चय नहीं किया तब तक मूर्तिपूजादिकी उद्घोषणा, प्ररूपणा और उपदेशसे परे रहें । अनुशासन, उनके स्वयंके जीवनमें तो कदम कदम पर अपनी सत्ता प्रदर्शित करता है। उनके शिष्य समुदाय और भक्तगणसे भी उनकी यही अपेक्षा रहती थी । इसलिए अपने एक प्रशिष्यते अनुचित और शंकास्पद आचरणको सुधारनेके लिए चेतावनी देने पर भी और उसका असर न होनेपर, उसके गुरु (स्वयंके शिष्य) को जो पत्र लिखा उसका सारांश था-"याद रखिये, अपने शिष्यको, सुधारिये, समझाइये और शुद्ध कीजिए, अन्यथा कल्याण नहीं है । 'मैं अमरसिंह नहीं । यदि यह दशा रहती है तो मैं इसे निकालकर समुदायसे बाहर करता हूँ ।"३५ समाजोन्नतिके लिए उनकी समीक्षक दृष्टि द्वारा पर्यवेक्षित जिनेश्वर भगवंत द्वारा प्ररूपित श्री जैनसंघके श्रावक-श्राविका (गृहस्थ) के योग्य बारह व्रतको उन्होंने अधिक उपयुक्त समझा था; जिनका जिक्र उन्होंने अपनी जैन तत्त्वादर्श, तत्त्व-निर्णय-प्रासाद, चिकागो प्रश्नोत्तर, जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर आदि रचनाओमें विस्तृत रूपसे, विभिन्न दृष्टिबिन्दुओंसे विश्लेषित करके किया है । यथा-विशेष रूपमें समाजमें भय और
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