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________________ साम्यवादी नहीं है, न सर्वधर्म एकसमान के मूर्खतापूर्ण प्रलापकी उद्घोषक, लेकिन विचक्षण- विलक्षण परिखोंकी गुण सापेक्ष-निरपेक्षताको लेकर प्ररूपित हुई हैं । अतः वे जिन अव्यवहार्य एवं परिहार्य योग्य, धार्मिक सिद्धान्तोंका कड़ी से कड़ी आलोचनाके साथ खंडन करते हैं, उन्हीं धर्मोके सुंदर परिणाम युक्त वैश्विक सामाजिक और व्यावहारिक सेवाओंको साधुवाद देनेमें भी नहीं हिचकिचाये यथा “ अन्य धर्मोने अपने धर्मग्रन्थमें ईश्वर भक्ति, दया, दान, सत्य, शील, संतोष, क्षमा, आर्जव, मार्दव, विनय, परोपकार कृतज्ञतादि शुभ प्रवृत्तियोंका जो उपदेश दिया है, उससे मनुष्य जातिका इहलौकिक और पारलौकिक उपकार ही हुआ है, किंतु देव-गुरु-धर्मका विपर्यय बोध करवाया है, उससे मनुष्य जातिका बहुत नुकशान होगा " ३१ ' उनका खयाल था कि सर्व धर्मोंको अपने प्रचार में 'शिवमस्तु सर्व जगतः के शाश्वत सत्य और प्रमाणिकता, सहिष्णुता, उदार दृष्टिबिंदु आदि अख्तियार करने चाहिए। अतः उन्होंने प्रेरणा दी है कि -“बहुत मतवाले अन्योंको अपने मतमें मिलानेके लिए जो जबरदस्ती करते हैं, डर दिखाते हैं, अनेक प्रकारके नुकशान करते हैं या लालच देते हैं, यह तो अनुपयुक्त, असमीचीन और अवांछनीय हैं..... परंतु हम सभी मतवालोंको नम्रतापूर्वक विनती करते हैं कि, अपनी जाति या मतमें कहे हुए बूरे कार्योंको (जो विश्व जीव सृष्टिके लिए हानिकारक हों) उसे छोड़कर अपने आपको योग्य धर्माधिकारी बनायें, सर्व पशु-पक्षी और मनुष्यों पर मैत्रीभाव घरें और देव-गुरु-धर्मकी परीक्षा करके यथार्थ शुद्ध-सच्चे धर्मकी प्राप्ति करें ।" उनकी इस सत्य-पक्षपाती धर्म निरपेक्षताके विषयमें श्री नागकुमार मकातीके विचार दृष्टव्य हैं उन्होंने इंढक मतका त्याग करके संवित दीक्षा ग्रहण की, उसमें इंढकोंको उदासीन या संविज्ञोंको आनंदित होने जैसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि उसमें न ढूंढकोंकी हार है न संविज्ञोंकी जीत; लेकिन यह जय-पराजय सत्यासत्यका है, जो उस महापुरुषकी उत्कृष्ट मनोदशा, सत्य स्वीकारकी तमन्ना और नैतिक हिंमतका परिणाम माना जा सकता है । ३३ यहाँ हमें उनकी स्वतंत्र निष्पक्ष धर्मनिरपेक्षताके मूलाधार 'सत्यप्रियता' के दर्शन होते हैं । निष्कर्ष रूपमें हम यह कह सकते हैं कि जन्मजात क्षत्रिय, परवरिश स्थानकवासी - फलतः ढूंढकमतकी दीक्षा स्वीकारनेवाले लेकिन, सत्य दीपककी ज्योतकी ज्योतिसे आकर्षित होकर, बाईस वर्षका दीक्षापर्याय एवं साम्प्रदायिक मान-सम्मानयुक्त आकर्षक सुभावनी जिंदगी को भी पलंगे सदृश उसमें स्वाहा करके, संवित शाखीय दीक्षा अंगीकृत करनेवाले उस सत्यधर्म- प्रिय महारथीने अपने साहित्य सुमनोंसे जैनधर्मके अनेकान्तसापेक्षतायुक्त निरपेक्षताकी सुवासको वितरित करते करते सभीको सन्मार्गदर्शन देकर विश्व कल्याणकी उदात भावनाको प्रसारित किया है । सामाजिक सुधारः --- जैनसंघ समेत भारतीय समाज पूंजीवाद और सामन्तवाद, साम्यवाद और मार्क्सवाद, समाजवाद और साम्राज्यवाद, प्रगतिवाद और रूढ़िवाद, भौतिकवाद और आध्यात्मिकवाद आदि तत्कालीन अनेक वादोंकी चक्कीमें पीसा जा रहा था । बुद्धिवादिता, संकीर्णता और असहिष्णुताके प्राधान्यसे वर्गसंघर्ष प्रतिदिन फलने-फूलने लगा था । राजकीय प्रशासकीय, सामाजिक एवं आर्थिक शोषणोंके निरंतर होनेवाले प्रहारोंसे सामाजिक शक्तियों तितर-बितर हो गयीं थीं। पाश्चात्य शासकोंकी पूंजीवादी शोषक रीति-नीतियोंके कारण जातीय समानताके बिगुलों और भेरीनादोंके शोर बीच भारतीय समाज एक नयी ही आर्थिक वर्ग विग्रहतामें बूरी तरह उलझ गया था । परिणामतः धनवान अधिक धनवान होते जा रहे थे और निर्धन अधिक निर्धन बनते गये थे । ऐसी विषम उलझनोंमें फंसे समाजके राहबरके रूपमें भीष्म ब्रह्मचारी श्री आत्मानंदजी म.सा. की सामर्थ्यवान् आंतरिक जीवन शक्तिका स्रोत जीवमात्रके, जन-जनके और सर्व जैनोंके मंगलमय जीवन और आत्मिक कल्याण हेतु सम्पूर्ण समर्पण भावसे प्रवाहित हुआ । उन असमानताओंको तिरोहित करने हेतु उन्होंने अपनी वेधक और दूरदर्शी दृष्टि एवं विलक्षण प्रतिभासे शोषणहीन सभ्य और संस्कृत समाजके लिए कुछ क्रान्तिकारी और सुधारक विचार प्रस्तुत किये जिसके अंतर्गत कोई भी धार्मिक महोत्सव (पूजन-प्रतिष्ठा दीक्षादि या शादी-ब्याह आदि जीवन व्यवहारमें होनेवाले लेन-देन रूप दहेजादिके विषचक्र, भोजन समारंभ या अन्य फिज़ूल खर्च पर नियमनः धनिकोंको सम्पत्ति प्रदर्शन अथवा इज्जत Jain Education International 22 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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