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________________ करते हुए मुक्ति विषयक प्ररूपणा अनंतर “चैतन्य स्वरूपा परिणामी कर्ता साक्षात् भोक्ता स्वदेह परिमाणः प्रतिक्षेत्रं भिन्नः पौद्गलिकं दृष्टाश्चर्यमिति"- तत्त्वालोकालंकार' सूत्रानुसार आत्म स्वरूपोंकी प्ररूपणा की है। __ संसारी आत्माकी एकमात्र ख्वाहिश सुख प्राप्ति, जिसे परिपूर्ण करनेके लिए वह विपरित विचार-वाणीवर्तनका आश्रय लेते हुए, मोल लेते हैं-अनेक प्रकारके कर्मबंधनोंकों; लेकिन जब उन्हें उस भ्रमजन्य, दुःखमूलक, भव-भ्रमणमें हेतुभूत बहिरात्म दशा या विभाव दशाका एहसास हो जाता है, उसके नुकशान जब नयनोंमें नर्तन करते हैं, तब तत्क्षण अपने आप ही उन्हें त्याज्य मानकर उनसे मुंह मोड़ लेता है और शाश्वत आत्मिक सुखको प्राप्त करवानेमें सहायभूत शुद्ध धर्म वृत्तिकी ओर मूड़ जाता है । इस प्रकार जागृत आत्मा समस्त मानव समाज और उससे भी एक कदम आगे सकल विश्व-जीवसृष्टिको एक सूत्रमें पिरोनेवाले वसुधैव कुटुम्बकम की भावनाको आत्मसात करके जैनधर्मानुसार अहिंसा, अमृषा, अस्तेय, अब्रह्म-त्याग, और अपरिग्रहके पंचामृत रूप सिद्धान्तोंके आश्रयमें रहकर हिंसा, झूठ, चोरी, चारित्र-हीनता, जातीय या वर्गीय असमानता और एकान्तिक स्वार्थांधता, स्वमत दुराग्रह आदि विषैले कुभावोंसे ऊपर उठकर सहनशीलता, सहिष्णुता, सत्यप्रेम, उदारता, चारित्रिक उदात्तता, निष्पक्षतादि सद्भावोंको प्राप्त उत्तम मानवीय कक्षाको (अंतरात्म दशाको) प्राप्त कर लेता है । मानव मात्रकी (जीव-मात्रकी) उस उत्कृष्ट आत्मिक, मानसिक और शारीरिक परिस्थितियोंकी कार्यान्वित शक्तिको ही 'धर्म' संज्ञा प्राप्त होती है । ऐसे धर्मका कोई भी नाम हों या कोई भी धाम हों-आठों याम वही आदरणीय, आचरणीय, आराधनीय, साधनीय हैं । इसीको अनेक प्रसिद्ध और महान विद्वान जैनाचार्योंने विविध रूपोमें प्रस्तुत करके जैनधर्मकी स्वतंत्रता, सहिष्णुता और तटस्थताके आदर्श उपस्थित किये हैं । उसी विचारधाराको आचार्य प्रवरश्रीने प्रवाहित किया है । अन्य देवोंके गुणावगुणोंका वर्णन करते हुए अरिहंत भगवंतोंकी श्रेष्ठता विषयक विचार प्रस्तुत किये हैं - “अहंत परमेश्वर ही सर्वज्ञ और सच्चे धर्मके उपदेशक हैं, अन्य नहीं । जेकर कोई ऐसा कहें कि जैनोंने अर्हतोंके वास्ते अच्छी अच्छी बातें अपने पुस्तकोंमें लिख दी हैं तो हम कहते हैं कि, अन्य मतवालोंको किसने रोका है, जो तुम अपने अवतारों वास्ते अच्छी बातें मत लिखो । परंतु जैसा जिसका चाल-चलन था, वैसा ही लिखनेवालोंने लिखा है । जैसे भतृहरिजीने अपने 'शृंगार शतक में लिखा है - “शंभु स्वयंभु हरयो हरिणेक्षणानां, येनाक्रियंत सततं गृहकर्म दासाः ।। वाचामगोचर चरित्र विचित्रताय, तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय ॥"२९. अतः श्रीसिद्धसेन दिवाकरजी म., श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म., श्रीहेमचंद्राचार्यजी म. आदिकी धार्मिक निरपेक्षताको-धार्मिक गुणाश्रयी निष्पक्ष, तटस्थ, स्वतंत्र और स्पष्ट धारणाओंको-श्री आत्मानंदजी म.सा.ने मुक्तमनसे प्रशंसित किया है । वे गुणके पूजारी है-वेशके नहीं; उनकी श्रद्धा शुद्ध एवं सात्त्विक आचारोंके प्रति है, रूढ़ि या अनाचारोंके प्रति नहीं है । यही कारण है कि “सच्चरित्र ही सच्ची मनुष्यताका मापदंड है ।"-की उद्घोषणा करते हुए उन्होंने इतर धर्मके देवोंकी हीन चारित्रके कारण ही भर्त्सना की है और सत्प्रेरणा दी है . “हम बहुत नम्रतापूर्वक विनती करते हैं कि कदाग्रह छोड़कर प्रेक्षावानोंको यथार्थतत्त्वका निर्णय करना चाहिए ।...... वेद, स्मृति, पुराण तथा जैन, बौद्ध, सांख्य, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, पातंजल, मीमांसकादि सर्वशास्त्रोंके कहे तत्त्वोंकी प्रथम श्रवण, पठन, मनन, निदिध्यासनादि करके जिस शास्त्रका कथन युक्ति प्रमाणसे बाधित हों, उसका त्याग कर देना चाहिए और युक्तिप्रमाणाबाधित हों, उसको स्वीकार कर लेना चाहिए । परंतु मतोंका खंडन - मंडन देखकर किसी भी मत पर द्वेष बुद्धि कदापि नहीं करनी चाहिए ।"३० क्योंकि ज्ञानी महापुरुषोंने तो ऐसी राग-द्वेषयुक्त, स्व-परके गुणदोषोंके परीक्षणमें मोहांधता, स्वमताग्रहता, कूपमंडूकता और दृष्टिरागयुक्त मुग्धताको स्वशक्तिके निरंतर दुर्व्यय रूप ही माना हैं । यथा .. “अहो विचित्रं मोहान्ध्यं, तदन्धैरिह यज्जनः; दोषा असन्तो पीक्ष्यन्ते, परे सन्तोऽपि नात्मनि ॥" इस प्रकार हम देखते हैं कि, उनकी धार्मिक निरपेक्षता साम्प्रतकालीन धर्म निरपेक्षता सदृश-कथिरकंचन, या उत्तम अधम, साक्षर-निरक्षर या प्रधान-प्यून-सभीको तुल्य माननेवाली, सभीको एक इंडेसे भगानेवाली (21) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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