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________________ प्रदर्शितकर्ता स्वच्छ दर्पण-तुल्यः तटस्थ, स्वतंत्र, निष्पक्ष अनेकान्तवाद और उसकी विचारधारा ही विश्वशांतिकी एकमात्र आधारशिला बननेमें सक्षम है । ऐसे सामर्थ्यवान-उदार हृदयी अनेकान्तवादकी जड़ें जिस धर्मरूपी वटवृक्षको जीवंत और हरा-भरा रखती हैं, वह धर्म और उसके श्रद्धावान् धर्मीका भी वैसे ही महामना-विशाल हृदयी होना विस्मयकारी नहीं । जिन्होंने पूर्वावस्थामें जैनधर्म प्रति द्वेषभाव रखा था, ऐसे जैनधर्मके पूर्वाचार्यों-श्रीसिद्धसेन दिवाकरजी, श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी आदि अनेक विद्वानोंने भी जैन सिद्धान्त-स्याद्वाद और अनेकान्तवाद-के हार्दको पाकर और जैनधर्मको आत्मसात् करते हुए प्रमुदित होकर उद्घोषणा की “त्यक्तः स्वार्थः परहितरतः सर्वदा सर्व रूपं, सर्वाकारं विविधमसमं, यो विजानाति विश्वम् । “ब्रह्मा विष्णुर्भवतु वरदः शंकरो वा हरो वा; यस्याचिन्त्यं चरितमसमं भावतस्तं प्रपद्ये ॥२७ ठीक उसी प्रकार उनके ही चरणारविंद पर चलनेवाले श्री हेमचंद्राचार्यजी म.भी ऐसी ही उदारताका परिचय करवाते हैं - “न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो, न द्वेषमात्रादरूचिः परेषु । यशावदाप्तत्यपरिक्षया तु त्वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥" इसी भावनाका प्रतिघोष आचार्य प्रवर श्री आत्मानंदजी म.सा.ने भी अपनी रचनाओमें दिया है । “जैनधर्मी द्वेष बुद्धिसे वेदोंकी निंदा करते हैं ।"-इसके प्रत्युत्तरमें वे लिखते हैं, "हे प्रियवर ! वेदोमें जो जो वैराग्योत्पादक-निवृत्तिमार्गके वचन(प्ररूपणायें) वेद, उपनिषद, ब्राह्मण, आरण्यक, स्मृति, पुराणादिमें लिखे हैं, बे सर्व जैनमतवालोंको सम्मत हैं ..... परंतु जो हिंसक और अप्रमाणिक (प्रमाण बाधित) वचन हैं, वे जेनोंको सम्मत नहीं-असर्वज्ञ मूलक होनेसे.....हे प्रियवर ! इस कालमें वैदिक मतवाले जैनोंको द्वेष बुद्धिसे नास्तिक कहते हैं, लेकिन जैनाचार्योंने जो जो वेदबाबत लेख लिखे हैं, वे सर्व यथार्थ तत्त्वके बोधवास्ते लिखे हैं, न तु द्वेष बुद्धिसें ।२८ आत्माका शुद्ध स्वरूप होता है, एकमात्र परमात्म स्वरूप, लेकिन अनादिकालीन आवरणोंकी मलिनताके कारण उद्भूत होती हैं, विश्वमें दृश्यमान उसकी विभिन्न दशायें जिससे आत्माका बहिरात्म स्वरूप स्पष्टतया प्रकट होता है । जितने प्रमाणमें ये कर्मावरण घने होतेहैं, आत्माक्ती उज्ज्वलताको उतने ही प्रमाणमें कलुषित बनाते हैं, जिससे आत्माकी विभिन्न चित्र-विचित्र परिस्थितियाँ निर्माण होती हैं; और उन कर्मावरणोंकी जितनी अल्पता या मंदता होती हैं, आत्माको उतनी ही उत्तमता, महानता और श्रेष्ठता प्राप्त होती है, जिसे आत्माकी अंतरात्म दशाके नामसे पहचाना जाता है । उस अंतरात्म दशामें उसका व्यक्तित्व धार्मिक उदारता, व्यापकता, समन्वयवादिता एवं सहिष्णुतासे छलछलाता है, क्योंकि वीतराग-सर्वज्ञ-सर्वदर्शी-परमात्माका चरणसेवक संकीर्ण, राग-द्वेष वर्धक, अनुदार या एकान्तिक दृष्टि रख ही नहीं सकता । उसके अंतरमें 'सच्चा सो अपना'की तरंगें निरंतर अठखेलियाँ करती रहती हैं । वह षड्दर्शनका आराधक बन जाता है । सर्व दर्शनोंके प्रति उसके दिलमें सहिष्णुता होती हैं । यही कारण है कि श्री आत्मानंदजी म.सा.ने 'चिकागो प्रश्नोत्तर' में, "सच्चे व्यापक और कल्याणकारी सिद्धान्त किसी व्यक्ति या समाजकी निजी पैतृक संपत्ति नहीं होते, बल्कि, जीवमात्रके लिए व्यवहार्य होते हैं"इस भावनाको प्रदर्शित किया है। उनकी ऐसी ही आंतर्दशाको अभिव्यक्ति प्राप्त है अज्ञान तिमिर भास्कर' की प्रस्तावना-पृ.७ में “कोई पण निष्पक्षपाती तत्त्व जिज्ञासु पुरुष आ ग्रन्थनुं स्वरूप आद्यंत अवलोकशे तेने जणाशे के एक जैनना समर्थ विद्वाने भारतवर्षनी जैन प्रजानो भारे उपकार कीधो छ ।” ऐसी उत्तमता प्राप्त अंतरात्माके प्रबल धर्म पुरुषार्थके परिणाम रूप अंततोगत्वा एक समय ऐसा आता है कि कलुषित आत्मपात्र-स्थित सर्व अशुद्धियाँ खत्म हो जाने पर उसका शुद्ध-स्फटिक सदृश स्वरूप-परमात्म दशा-उसे प्राप्त होता है। इन्हीं बातोंको श्री आत्मानंदजी म.ने अपने अज्ञान तिमिर भास्कर' ग्रन्थको समापन (20) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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