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________________ वैशेषिक, नैयायिक, बौद्धादि प्राचीन मतोंका और विक्रमकी द्वितीय सहस्त्राब्दि में अद्वैत-द्वैत-द्वैताद्वैत, वैष्णव-शैवस्वामीनारायण-कबीर-नानक दाटू-भक्ति-गरीब-गोरख-रामसनेही-कूका आदि अनेक हिन्दु पंथ; आर्यसमाज-ब्रह्मसमाज-प्रार्थनासमाजादि अनेक मतांतर्गत विभिन्न संस्थायें; मुस्लिमोंका मुस्लिम और क्रिश्चनोंका ईसाई धर्म एवं जैनोंके दिगम्बर-जिनमें मूलसंघ, काष्ठासंघ, माथुरसंघ, गोप्यसंघादि तथा श्वेताम्बर-जिनमें मूर्तिपूजा समर्थक तपागच्छ, खरतरगच्छ, अंचलगच्छ, पूनमिया, नागपुरीय, पार्श्वचंद्र, पल्लिवाल आदि अनेक गच्छ और मूर्तिपूजा विरोधक तेरापंथी, बीसपंथी, गुमानपंथी, तोतापंथी, लूंपक (ढूंढक), कडुआ, बीजा, आठकोटि, अजीव, कालवादी, आदि अनेक पंथ या मत-मतांतरोंका प्रचलन विविध महात्माओं द्वारा किया गया हैं । इन पर्वोक्त मतोंका विरोध है। ये सर्व मतवाले भेड़तुल्य-जैसे एक भेड़ भां भां करती है, तब सभी भे. भां भां करने लगती हैं-नवीन मतोंको मानने लग गये हैं । गडुरिया प्रवाह समान एकके पीछे सर्व चलते हैं और हल्लो हल्लो करते फिरते हैं । कोई कसाई बन गया है, कोई महम्मदका कलमा पढ़ने लगा है । इन सर्वमेंसे किसी भी मतवाले शास्त्र पढ़कर तत्त्व तो निकालते नहीं और आत्माकी बरबादी करते हैं | बुद्धिमान ऐसे गडुरिक प्रवाहको परिहरें।२५ जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर में भी साधर्मिक वात्सल्य, रत्नत्रयी और तत्त्वत्रयीकी भक्तिपूर्वक आराधना, सप्तक्षेत्र व्यवस्था, जैन-बौद्ध मतोंकी तुलना, कर्म स्वरूप, मुक्ति-स्वरूप, विश्वधर्म स्वरूप-भेदादि विषयोंको विवेचित करते हुए आगमग्रन्थ- उत्तराध्ययन सूत्र' जो श्रीमहावीर स्वामीजीकी अंतिम देशना संकलनके स्वरूपमें माना जाता है-उसे कल्पसूत्रकी मूलटीका संदेह विषौषधि' और श्री भद्रबाहु स्वामीजीकी उत्तराध्ययन नियुक्ति आदिके संदर्भ देकरके उत्तराध्ययनके २-८-१०-२३ आदि अध्ययनोंकी रचना या प्ररूपणाके संयोग-समय-स्थानादि दर्शाते हुए वर्तमानमें उत्तराध्ययन सूत्रको जो अंतिमदेशना संकलन स्वरूप माना जाता है, उसे प्रश्नोत्तर-९४ में अयुक्त सिद्ध किया है । एक परापूर्वकी श्रद्धेय मान्यताको इस तरह शास्त्रीय शहादतोंके आधार पर निराधार सिद्ध करके अपने स्वतंत्र, फिर भी प्रामाणिक और ठोस मंतव्यको धर्म श्रद्धालु समाजके समक्ष प्रस्तुत करना-किसी विरल व्यक्तित्तका प्रभाव प्रकट करता है । इस तरह 'तत्त्व निर्णय प्रासाद" ग्रन्थमें विशेष रूपसे गायत्रीमंत्रके अर्थ, मनुस्मृति, ऋग्वेदादिके आधार' पर विश्व सृष्टिक्रम, वेदोंकी अपौरुषेय रचनामें संदेह और परस्पर कथन भेद अर्थात् विरोधाभासके संदर्भ, आर्य-अनार्य (पूर्ववर्ती-परवर्ती) वेदके मूलपाठों और अर्थ विचारणामें विपरितताः जैनधर्मकी शाश्वतता सिद्ध करनेवाले उनके उद्गार दृष्टव्य हैं-“हे भव्य ! जो अनंत तीर्थकर अतीतकालमें हो गये हैं और आगामी कालमें होंगें उन सर्वकी द्वादशांगीमें तत्त्व विषयक रचनामें किंचित् मात्र भी अंतर नहीं । तत्त्व स्वरूप एक समान होनेसे जो शास्त्र भ.महावीरके शासनमें रचे गये हैं, वैसे ही श्री ऋषभदेव भगवंतके समयमें रचे गये थे । इसलिए जैनधर्मके पुस्तकारूढ़ सिद्धान्त सर्वाधिक प्राचीन सिद्ध होते हैं । स्वयंकी-तीर्थंकर नामकर्म की पुण्य प्रकृतिके भुगतान हेतु (क्षय-निमित्त) देशना देनेका उन तीर्थंकरोंका कर्तव्य बन जाता है । उस पुण्य प्रकृतिके बिना क्षय, उनकी मुक्ति संभव नहीं है । अतः सभी नूतन तीर्थंकर भी वे ही प्राचीन सिद्धान्तोंकी ही व्याख्या करते हैं । इस प्रकार सैद्धान्तिक प्रवाहापेक्षया नवीन प्रतीत होनेवाला जैन दर्शनका साहित्य प्राचीन हैशाश्वत है ।२६ इस प्रकार हम अनुभूत कर सकते हैं कि, श्री आत्मानंदजी म.सा.ने अपनी रचनाओमें जो जिनेश्वर भगवतकी एवं अपने पूर्वाचार्योंकी जो प्ररूपणायें सत्यकी कसौटी पर प्रमाणित हुईं, उन्हें स्वीकार करके किसीके भी अन्यायी दबाव या वर्चस्तके वशीभूत हुए बिना ही सत्यकी प्ररूपणा की । इसके अतिरिक्त भी उनके जैन तत्त्वादर्श, चतुर्थ स्तुति निर्णय', ईसाई मत समीक्षा', सम्यक्त्व शल्योद्धार' चिकागो प्रश्नोत्तर' आदि अन्य ग्रंथोंमें भी ऐसे अनेक उदाहरण कदम कदम पर प्राप्त होते हैं, जो विस्तार भयसे अनुद्धत ही छोड़ दिये गये हैं । धार्मिक निरपेक्षताः--विश्वकी विषैली समस्याओंके समाधानका प्रस्तुतकर्ता-विश्वैक्य भावनाका उद्घाटक; धर्म कट्टरता, धर्मोन्माद, और धर्मांधतासे मुक्ति प्रदाता एवं मनुष्य जीवनके शुद्ध और सत्य स्वरूपको स्पष्टतया (19) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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