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निष्कर्ष रूपमें हम यही कह सकते हैं कि तत्कालीन श्री दयानंदजीके वेदादि ग्रन्थोंके स्वच्छंद मतिपूर्वक, मनघड़ंत और भ्रामक अर्थघटनका उद्घाटन राजा शिवप्रसाद सितारेहिद के इतिहास तिमिर नाशक ग्रन्थकी भ्रमजन्य गैर समजुतीसे व्युत्पन्न धर्म संबंधी झूठी प्ररूपणाओंकी स्पष्टतायें: शंकर स्वामी आदि अनेकों द्वारा किये गये भ्रांतिजन्य खंड़नात्मक आक्षेपोंका प्रत्युत्तर; जैनधर्मकी ऐतिहासिक परापूर्वताका और शाश्वतताका जैनोंकी जीवसेवा, जनसेवा और समाजसेवाका मानों प्रत्यक्ष चित्रण: तत्कालीन नूतन शिक्षा प्रचारके किंपाक फल सदृश परिणामोंका तत्कालीन समाजके धार्मिक, सामजिक, शैक्षणिक, साहित्यिकादि अनेकविध क्षेत्रों में प्रसारित गहरी निंदका जो चित्रण मिलता है वह वास्तवमें अपने आपमें तत्कालीन इतिहास स्वरूप ही है । निर्भीक सत्य प्ररूपणा : लोक कल्याण और सत्यमार्गके पथिकोंकी सफलताका राज़ उनके ठोस ज्ञान, सत्य प्ररूपणा और किसी भी उपस्थित परिस्थितिका मरदानगीके साथ सामना करनेमें है । केवल सत्य और शिस्तके पूजारी नीहर-वीर श्री आत्मानंदजी म.सा. का ढक संतसे संविज्ञ साधुजीवनमें प्रवेश, उनकी उत्कृष्ट मनोदशा, निंदा-सामाजिक परिताप और विरोधके बवंडरको सहते हुए भी, सत्य स्वीकारकी तमन्ना एवं नैतिक हिंमतका ही परिणाम माना जा सकता है, जो उनके जीवनके सच्चे माहात्म्यको स्पष्ट करता है । वैसे भी सच्ची साधनाके साधकका एकमेव लक्ष्य सत्य सिद्धान्तका अन्वेषण-पालन और प्रचार ही है, जिससे मिथ्या सहि, कुरिवाज और अंध परंपराओंकी शृंखलाको तोड़कर पूर्वाग्रह रहित नवनिर्माणकी प्रतिष्ठा हों । उन्हीं निर्भीक सत्य प्ररूपणाओंका उनके समग्र साहित्य पर भी जो साधारण प्रभाव बना रहा है, यहाँ उन्हें ही स्पष्ट करनेका प्रयास किया गया है ।
सत्यका साक्षात्कार होने पर उसके प्रचार हेतु सन्नद्ध उस निर्भीक वीरको गुरु जीवनरामजीने सर्व “ वत्स ! अपने क्रान्तिकारी विचारोंको अपने मनमें रखो, क्योंकि, उन्हें प्रकट
प्रथम यह समझाया था
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पढ़े लिखे साधु भी झूठी और शास्त्र विरुद्ध रूढ़ियोंके जालको तोड़नेमें असमर्थ
करनेका मार्ग कंटकाकीर्ण हैं हैं । वर्षोंकी आदत, चाहे वह नियम विरुद्ध भी हों, उन्हें छोड़नेका साहस किसी विरलेमें ही होता है ।
पंजाबमें पूज्यजी साहबका बहुत जोर है सब लोग उनके पीछे हैं, और तुम अकेले हो ।" उसी समय आपने प्रत्युत्तर दिया था, में अकेला नहीं हूं गुरुदेव ! मेरे पीछे सत्यका बल है। लोगोंके लाख विरोध करने पर भी वे सफल नहीं हो सकेंगें । आप किसी भी प्रकार की चिंता न करें, सत्यके पूजारीके सामने भयको कभी कोई स्थान नहीं मिलता सत्यान्वेषीकी वाणी या लेखिनीको आज तक न कोई कुचल सका है, न कोई कुचल सकेगा । १२३
इस निर्भिकताका निर्घोष प्रायः उनकी सभी रचनाओमें प्राप्त होता है । जिस समय सारे भारत वर्षमें श्री दयानंदजीके एकेश्वरवाद और प्रतिमा पूजन-विरोधका तूफान गर्जित हो रहा था, विदेशी शिक्षण नीतिने युवावर्गके दिलो दिमागको चकरा दिया था ऐसे प्रतिकूल माहौलमें उन्होंने मूर्तिपूजाका मंड़न करके * अज्ञान तिमिर भास्कर, प्रथम खंड़में अनेक प्रमाणों और युक्तियुक्त तर्कादिके सहारे उसका सक्षम प्रतिपादन करते हुए ललकारा हैं- “ सत्यार्थ प्रकाशमें वेदीकी स्थापना, प्रोक्षणपात्र, प्रणिता पात्री, आर्य स्थाली और चमसा ( चम्मच ) के चित्र पृष्ठ ४१.४२ में दिये हैं । इस सम्बन्धमें मेरा कहनेका आशय यह है कि दयानंदजी अपने शिष्योंको समझाने वास्ते ऐसा चित्र दिखलाते हैं, अर्थात् आकृति (मूर्ति) का स्वीकार करते हैं और बाह्य रूपमें मूर्तिका विरोध करते हैं, यह कैसा न्याय है ! भला, यह तुच्छ मात्र आहुतिके पात्रोंको बिना स्थापनाके नहीं समझा सकते हैं, तो जो महात्मा-अवतार - सत्य शास्त्रके उपदेशक हो गए, ऐसे परमात्माकी प्रतिमाके बिना उनके स्वरूपका कैसे ज्ञान हो सके ? अतः उनकी मूर्ति माननी-पूजनी चाहिए । २४
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इस ग्रन्थके द्वितीय खंड़में भाव श्रावकके भावगत सत्रह लक्षणोंमें नवम् लक्षण है- गाडुरिका प्रवाहका त्याग । उसका विवेचन करते हुए उन्होंने लिखा है, “इस अवसर्पिणी कालमें जब कोई भी धर्म प्रचलित नहीं था, तब श्री ऋषभदेव भगवंतने, सर्वप्रथम केवलज्ञान प्राप्त होने पर सर्वप्रथम 'आर्हतधर्मका प्रवर्तन किया। तत्पश्चात् मरिचिके शिष्य कपिल द्वारा कापिलिय (सांख्य) मत, पतंजलिसे पातंजल मत वेदान्त मत (पूर्व-उत्तर) मीमांसक,
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