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प्रवेश कर सकती हैं, परंतु समुद्र किसी भी एक नदीमें पूर्ण रूपेण नहीं समा सकता; वैसे ही स्यावाद (अनेकान्तवाद) स्वरूप जैन दर्शन-समुद्र है जो किसीभी एक नदी रूप (एकान्त नय रूप) अन्य दर्शनोंमें पूर्ण रूपेण समुच्चयसे नहीं समा सकता । उन सर्व दर्शनोंके (नयवादोंके) समन्वय, समुद्र रूप जैन दर्शनमें तो प्राप्त हो जाते हैं ।
ऐसे ही अनेक दार्शनिक और धार्मिक एवं सैद्धान्तिक तथ्योंके निरूपण उनके प्रायः प्रत्येक ग्रन्थमें कदम कदम पर बिखरे पड़े हैं, जो जैन दर्शन और धर्मकी श्रेष्ठता प्रमाणित करनेवाला सिद्ध हो सकता है, जिससे परवर्तीकालमें भी भव्यजनोंको आत्म कल्याणका मार्गदर्शन करते हुए उपकारक बन सकता है । सामाजिक-भारतीय समाजकी प्रतिमा पूजनकी परंपरा विश्वविख्यात है, जो मनोवैज्ञानिक तौर पर सफल प्रक्रियाके रूपमें मानसिक शांति-शक्ति और स्थिरताके लिए आवश्यक भी है । उसे केवल 'बूत परस्ती' कहकर उसका परिहास करना यह अकलका अजीर्ण है । सामाजिक श्रद्धाका यह अभिन्न अंग है । उस प्रतिमा पूजनके विरोधका विरोध करके, प्रतिमा पूजनको प्रमाणित करनेके लिए सम्यक्त्व शल्योद्धार' ग्रन्थकी रचना की गई है; तो जैन समाजके श्री रत्नविजयजी म.द्वारा प्रतिक्रमण (जैनधर्मकी एक दैनिक आवश्यक क्रिया) में 'तीनथुई के व्यवहारको प्रचलित करवानेवाले विधानरूप उत्सूत्र प्ररूपणाको अनेक आगमिक शास्त्रों एवं गीतार्थ पूर्वाचार्योंके ग्रन्थोंके संदर्भोको उद्धृत करके चतुर्थ स्तुति निर्णय-भाग-१-पृ.१२१ और १४० की रचना करके जैन समाजको सच्चे राह पर स्थिर होनेके लिए प्रेरणा दी है . “हे भोले श्रावकों, तुम जो अपनी आत्माके कल्याणके इच्छुक हों, अरु परभवमें उत्तमगति, उत्तमकुल पाकर बोधिबीजकी सामग्री प्राप्त करनेके अभिलाषी हों तो तरन-तारन श्री जिनमत सम्मत हज़ारों पूर्वाचार्योंके चार थुइयोंके मतको छोड़कर दृष्टि-राग से श्री जिनमत विरुद्धमतको कदापि काले अंगीकार न करों न इसका विचार करो । ..... अपने जैनमतमें बहुत पंथ प्रचलित हो गये हैं ..... कोई विकारी जनोंके कथनसे पूर्वाचार्योंके कथनको कुयुक्तिसे तोड़-फोड़ करनेका झूठा हठ न करों ।।२२ ।।
इसके अतिरिक्त तत्त्व निर्णय प्रासाद' में मथुराके कंकाली टीलेके और अन्य शिलालेखोंके संदर्भोको प्रस्तुत करके उनकी प्रतिलिपि और उनका अर्थघटन करके इतिहासालेखनमें अत्यावश्यक और अत्युपयोगी सामग्रीकी पूर्ति की है । ऐतिहासिकताका विशिष्ट महत्त्व उनके अंतरस्थ हो गया था, यही कारण है कि, उन्होंने विश्स्तरीय जैनधर्म यशध्वजा-कीर्तिपताकाको लहरानेमें श्री वीरचंदजी गांधीको चिकागो-विश्वधर्म परिषदमें भेजकर और योरपीय विद्वानोंको अत्युपयोगी-यथार्थ मार्गदर्शन देकर एवं विदेशीय भाषाभाषी पत्रपत्रिकाओंमें जैन धार्मिक सिद्धान्तादिका मुद्रण करवाकर सार्वभौम जैनधर्मकी शिराओंको समस्त संसारमें प्रचारित करनेके भगीरथ पुरुषार्थ करके अपनी विशिष्ट दुरंदेशीयता और धर्म प्रभावनाकी उत्कट उत्कंठाका परिचय दिया है।
इस तरह इनके गद्य-पद्य साहित्य और पत्र-पत्रिका-लेखादि अनेकविध साहित्यिक कृतियोंमें तो ऐतिहासिकताकी केवल झलकें मिलती हैं। लेकिन उनकी “जैन-मत-वृक्ष' रचना तो पूर्णरूपेण ऐतिहासिक कृति ही हैं। जिनमें साम्प्रत अवसर्पिणीकालकी वर्तमान चौबीसीके श्रीऋषभदेवसे श्री महावीर स्वामी पर्यंत और श्री सुधर्मा स्वामीसे श्री आत्मानंदजीम.सा.पर्यंतकी भ.महावीरकी समस्त पट्ट परंपरा, इतर धार्मिक मतोंकी परंपराका प्रारम्भ, और प्रारम्भके कारणोंका वृत्तान्त-समय-स्थानादि आलेखन; वेसठ शलाका पुरुषोंका इतिवृत्त और चरम तीर्थपतिके शासनके राजाओंकी तवारिखादि अनेक अत्युपयोगी एतिह्य सामग्रीका चित्रण करके तो आश्चर्यकी अवधि प्रसारित की है । इन सभीका सुविस्तृत परिचय पर्व चतुर्थमें करवाया गया है ।
जिस प्रकार पूर्वाचार्योंकी कृतियोंसे तत्कालीन तथ्यों और इतिवृत्तोंकी प्रामाणिक, शृंखलाबद्ध ऐतिहासिक सत्यताकी प्रतीति होती है, वैसे ही श्री आत्मानंदजी म.सा.के साहित्यमें भी उनके द्वारा की गई धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक, नैतिक, शैक्षणिक, साहित्यिक प्ररूपणाओंके आधार पर तत्कालीन परिस्थितियोंकी सिलसिलेवार तवारिख प्राप्त होती है । यद्यपि जैनेतर साहित्यमें आचार्य प्रवरश्रीकी उल्लेखनीय साहित्यादि अनेकविध सेवाओंका जिक्र नगण्य हैं, फिर भी वह अविस्मरणीय महत्व बनाये रखता है । उनके साहित्यके अध्ययनके
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