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अपने “जैन तत्त्वादर्श" “जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर” एवं “चिकागो प्रश्नोत्तर” आदि ग्रन्थोंमें अनेक सैद्धान्तिक शंका-समस्यादिका निराकरण एवं प्राचीन वाङ्मयाधारित सामान्य विषयोंकी प्ररूपणा की हैं । “सम्मति तर्क" जैसे अत्यन्त कठिन-न्याय विषयक ग्रन्थोंमें संशोधन करके अनुसंधान क्षेत्रकी एक नयी क्षितिजको उद्घाटित किया है । दार्शनिक और धार्मिक-सामान्यतः दर्शन और धर्म-दोनों एक दूसरेसे भिन्न होने पर भी परस्पर पूरकसहयोगी दृष्टिगोचर होते हैं; और साहित्य है इन दोनोंको जोड़नेवाली विधा । जिनशासनके पूर्वाचार्यों द्वारा प्राकृत, संस्कृत, मागधी, अपभ्रंशादि विविध भाषाओमें अमूल्य, तात्त्विक साहित्य-उन भाषाओंसे अनजान, तत्त्वगवेषकोंके लिए लाभ हेतु श्री आत्मानंदजी म.सा.ने सरल हिन्दी भाषामें ग्रथित करके पेश किया। वेदांतके अध्येता, इतिहास-पुराणादिके पाठक, उपनिषद या श्रुतियोंके पर्यवेक्षक, सर्व दर्शनोंके ज्ञाता और चिंतन-मननकर्ता समर्थ दार्शनिक, निहायत धार्मिक एवं मूर्तिपूजाके समर्थक आचार्य प्रवरश्रीने अपनी रचनाओमें सप्रमाण-युक्तियुक्त-जैनदर्शनके श्वास-प्राण तुल्य स्याद्वाद-अनेकान्तवाद जैसे गहन विषयको भी अपनी विशिष्ट शैलीसे अत्यन्त सरल बना करके प्रस्तुत किया है, जो सभीको उपयोगी और लाभकर्ता बना है एवं पाठकोंको जैन दर्शनका प्रायः संपूर्ण ज्ञाता बनाता है, यथा-वेदान्तमें जिस प्रकारसे मुक्तिकी मान्यता है, उन्हें श्रुतियाँ, उपनिषदादिके संदर्भयुक्त विवरित करके, मुक्ति विषयक प्राचीन मंतव्योंको विश्लेषित करते हुए 'अज्ञान तिमिर भास्कर'-खंड-१ में अपने विचार पेश किये हैं . “प्रथम तो वेदांतकी मुक्तिमें ही झगड़ा पड़ रहा है । व्यासजीके पिता बादरी-कितनीक वस्तुओंके अभावमें मुक्ति मानते हैं; उनका शिष्य जैमिनी, उनसे विपरित मोक्ष स्वरूप मानते हैं और व्यासजी उन दोनोंसे भिन्न तीसरे तरहकी मुक्ति मानते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि वेदोमें मुक्ति स्वरूप अच्छी तरहसे कथन नहीं किया है, अगर किया होता तो पूर्वोक्त तीनों आचार्योंका मुक्ति विषयक अलग-अलग मत न होता । अगर ऐसा कहो कि, वेदोमें ही तीन प्रकारकी मुक्ति कही हैं, तब तो वेद, एक ईश्वरके बनाये हुए नहीं किंतु तीन जनोंके बनाये हुए हैं और उनकी जैसी समझ थी वैसा उन्होंने लिख दिया । अत: मुक्तिके स्वरूपमें संशय होनेसे-ऐसी तीन प्रकारकी मुक्ति प्रेक्षावानोंको उपादेय नहीं । क्योंकि, तीनोंमें परस्पर विरोध आता है ।"१५
इस प्रकार जो मानवभवका प्रमुख-सारतत्त्व 'मुक्ति में ही समरसता नहीं है, तब अन्य जीवन तथ्य निरूपणमें कैसे रगड़े-झगड़े होंगें, यह विचारणीय है । अब ग्रन्थराज जैन तत्त्वादर्श में ईश्वरकी सर्वशक्तिमानताको ललकारते हुए, जो तर्क पेश किये हैं, वे वाकयी सरल, मनोरंजक, एवं अकाट्य तार्किकताके उदाहरण स्वरूप है . “जब तुमने ईश्वरको सर्वशक्तिमान माना, तब तो ईश्वरकी सर्व शक्तियाँ सफल होनी चाहिए । तब तो ईश्वर सुंदर पुरुष बन कर सुंदर स्त्रियोंसे कामक्रीड़ा करें, चोरी, विश्वासघात, जीवहत्या, अन्याय करें, झूठ बोलें, अवतार बनकर गोपियोंसे कल्लोल करें, शिर पर जटा रखें, तीन आंख बनायें, बैल पर चढ़ें, स्त्रीको वामाढ्गमें रखें, किसीको बरदान दें और किसीको श्राप दें ..... अपने आपको अज्ञानी समझें, सब कुछ खायें, पीयें, नाचे, कूदे, रोये-पीटे और साथ ही साथ निर्मल, निरहंकारी, ज्योति स्वरूप, सर्व व्यापक बनें-इत्यादि सर्व शक्तियाँ ईश्वरमें हैं कि नहीं ? अगर हैं, तब तो उनकी सफलताके लिए उसे उन सभी कार्योको करना पड़ेगा, क्योंकि वे कार्य न करनेसे वे सर्व शक्तियाँ सफल न होंगी और ईश्वर दुःखी होगा । अगर उपरोक्त सर्व शक्तियाँ उनमें नहीं तो वह सर्वशक्तिमान न होगा । अगर यह कहोगे कि योग्य शक्तियोंकी अपेक्षा सर्वशक्तिमान है, तब जगत् रचनेकी शक्ति भी अयोग्य ही है ( इससे पूर्व जगत्कर्ताकी अयोग्यता सिद्ध की गई है) अतः वह भी परमात्मामें नहीं है ।"२०
इस तरह ईश्वर जगत्कर्तृत्व, ईश्वर स्वरूप-लक्षण और गुण, अद्वैतवाद, कर्मवाद, वैदिकी हिंसा आदिके स्याद्वादाधारित स्वरूपोंको विश्लेषणात्मक खंडन-मंडनका निरूपण भी अत्यन्त आकर्षक ढंगसे किया है; तो एकान्त और अनेकान्तको नदी और समुद्रके रूपक स्वरूपमें अज्ञान-तिमिर-भास्कर' में प्रस्तुत किया है । जैसे श्री सिद्धसेन दिवाकरजीम.की द्वात्रिशिका-५.१५ में दर्शाया है . “सर्व नदियाँ समुद्रमें तो एक साथ
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