________________
कोई कार्य नहीं करना है, जिससे उनका मन, मारे दुःखके कराह उठें। जरा सोचो, हमारे यों ही संप्रदाय त्यागसे उनके दिल पर क्या गुजरेगी ?.......... और फिर, फिरकेमें रहकर हमें कोई काम करना है तो क्या कम काम हैं ?"१३ लेकिन जब उनको उन्हीं के द्वारा ऐसे कार्य करनेके लिए प्रेरित किया जाता हैं कि जो पूर्वाचार्योंके कथनोंसे या प्ररूपणा-परंपराओंसे तो विपरित है, और जिससे पूज्यजी आदि उत्सूत्र प्ररूपकोंके साथ मेलजोल बढे एवं वैमनस्य उत्पन्न न हों, तब उनकी पूर्वाचार्योंके प्रति श्रद्धेय भक्ति फूट पड़ती है -“पूज्यजी साहब ! आप जो कुछ फरमा रहे हैं वह ठीक है, परंतु क्या किया जाय ! आगमवेत्ता पूर्वाचार्योंके लेखोंके विपरित अब मुझसे प्ररूपणा होनी अशक्य है । मैं तो वही कहुँगा जो शास्त्र विहित होगा। शास्त्र विरुद्ध मनःकल्पित आचार-विचारोंके लिए अब मेरे ह्रदयमें कोई स्थान नहीं है ।"१८ "तत्व निर्णय प्रासाद' के तैतीसवें स्तंभ-पृ.५४०,५४१ में आपने अन्य विदेशी विद्वानोंको- पाश्चात्य पंडितोंको भी स्वकल्पनासे नहीं, लेकिन पूर्वाचार्यों के रचित टीकादिकी सहायतासे ही जैनमतके शास्त्रोंके अनुवाद या विवरण करनेकी प्रेरणा दी है । इसी प्रकार जैन-तत्वादर्श, अज्ञान-तिमिर-भास्कर, सम्यक्त्व शल्योद्धार, चतुर्थ स्तुति निर्णय भा. १.२, चिकागो प्रश्नोत्तर आदि उनके प्रायः सभी ग्रन्थोंमें ऐसी ही पूर्वाचार्यों के प्रति आस्था और भक्ति प्रदर्शित हुई है । ग्रन्थों में पूर्वाचार्यों के प्रभावः--- व्यक्तिकी बुद्धि प्रतिभाकी आभा और चारित्रिक तेजप्रभा उसके नयनोंसे ही छलकती है, वैसे ही श्री आत्मानंदजी म.के पुरुषार्थी अध्ययनकी प्रतिभाका आलोक उनकी साहित्यिक कृतियोंसे छलकता है; जो उनकी अमर, मौनवाणी रूप वाङ्मयमें होनेवाली उनके हृदयस्थ भावोंकी मुखरित अभिव्यक्तियाँ हैं । श्री सुशीलजीके शब्दोमें -“श्री आत्मारामजी म.के यथार्थ दर्शनकी तीव्र लालसाकी तृप्ति उनके विराट ग्रन्थ सर्जन - अक्षर देहमें ही हो सकती है...... उनके जाज्वल्यमान ज्ञान-वैभवका पयपान किये बिना उनका जो चित्र अंकित किया जाय वह सर्वथा अपूर्ण होगा...... उनके द्वारा निर्मित वाङ्मयके वास्तविक विवेचन हेतु एक स्वतंत्र ग्रंथ भी रचा जाये, तो भी, कदाचित् उनके प्रति पूर्णन्याय न हो सकेगा । १५ “यह तो सिद्ध ही है की, किसी भी साहित्य रचनामें उस साहित्यकारकी अंतरात्माका यथार्थ चित्र पाठकके सम्मुख उपस्थित होता है ।१६
श्री आत्मानंदजी म.सा. के असाधारण साहित्यका महत्तम वैशिष्ट्य यह है कि, उनकी प्रत्येक रचना 'नामूलं लिख्यते किंचित् के सिद्धान्तको दृष्टि समक्ष रखकर की गई है । उनका अतिशय, विशद, वैविध्यपूर्ण, विषयगत समीक्षात्मक शैलीसे किया गया अध्ययन और उससे प्रतिफलित विशिष्ट वाङ्मयमें हमें स्थान स्थान पर अनेक अंगोपांग-गणधर रचित आगम-और पूर्वाचार्यों के पंचांगी रूप शास्त्रीय ग्रन्थों, वेद-पुराण-श्रुति-स्मृति-उपनिषद,न्यायशास्त्र-तर्कशास्त्र, बाइबल-कुरान, तौरेतादि अनेकानेक विविध वाङ्मयके यथोचित उद्धरण यथावसर प्राप्त होते हैं । उनकी कृतियाँ कोरी कल्पनाके पंखों पर स्वप्नील सवारी नहीं होती हैं, लेकिन, उसकी आधारशिला किसी न किसी धार्मिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है ।
यही कारण है कि उनकी साहित्यिक रचनाओमें अनेक पूर्वाचार्योंके संस्कारोंका असर प्राप्त होता है । (१) आचार्य प्रवर श्रीके समयमें राजकीय और सामाजिक अव्यवस्थाके सबब प्राचीन भाषाओंका स्थान नयी भाषाओंने लेना प्रारम्भ कर दिया था, अतःसामान्य जनोंका व्यवहार संस्कृत-प्राकृत भाषाओंसे छूट गया था, जिससे स्वधर्मका सच्चा स्वरूप और यथार्थ बोध पर अनभिज्ञताका अंधकार छा गया था । आपने इसका पर्यवेक्षण किया और एक नयी उदीयमान भाषा-हिन्दीकी ओर साहित्य प्रवाहको मोडा । जैसे श्री सिद्धसेन दिवाकरजीने तत्कालीन परिस्थितियोंको परखकर संस्कृतमें शास्त्र सृजनकी परंपराकी नींव रखीं; वैसे ही श्री आत्मानंदजी म.ने भी तत्कालीन जनभाषा-हिन्दीमें रचना करनेका प्रारम्भ करके, संस्कृतप्राकृतादि विद्वद्भोग्य भाषाओंसे अज्ञात, अथवा अल्पज्ञात जिज्ञासुओं पर महदुपकार किया,जो वाङ्मयके लिए, उसको उपयोगी रूपमें विस्तरित करनेके लिए अत्यावश्यक सिद्ध हुआ । (२) बालजीवोंके उपकारार्थ जैसे ज्ञानांभोनिधि आचार्य श्री ज्ञानविमल सुरीश्वरजी म.सा.ने लोकभाषा गुजरातीमें नवतत्व, दिवालीकल्प, अध्यात्म
(13)
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org