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मूलमात्र पुस्तकें मिली हैं, वे भी प्राय: अशुद्ध हैं । परंतु कितनेक मुनियोंकी प्रार्थनासे यह बालावबोध किंचिन्मात्र भाषा लिखी है । इनमें ग्रंथकारके अभिप्रायसे कुछ अन्यथा, या जिनाज्ञा विरुद्ध लिखा गया हों, तो हमें मिथ्या दुष्कृत हों, और अगर हमारी इस बालक्रीडामें भूल हो गई हों तो सुज्ञ जनों द्वारा उसका सुधार कर लेना चाहिए ।"-पृष्ठ १७७. इसी ग्रन्थमें आपने 'आचार दिनकर' ग्रन्थाधारित “सोलह संस्कार विधि वर्णन'-की प्ररूपणा की है । उसकी समाप्ति पर भी पृ.५०३में ऐसा ही इकरार और क्षमायाचना प्रकट की है।
श्री आत्मानंदजी म.सा. की पूर्वाचार्योंके प्रति कैसी सम्मानयुक्त दृष्टि थी उसका प्रमाण अज्ञान तिमिर भास्कर ग्रन्थमें भावसाधुके अधिकारमें हमें मिलता है । उनकी प्ररूपणानुसार भावसाधु किसे कहना चाहिए? उसकी परीभाषा रूप विधान करते हैं-“आगमानुसारी अर्थात् आगमके जानकार की आज्ञासे या उनकी निश्रामें और गीतार्थकी पारतंत्रतामें अर्थात् गीतार्थ वृद्धोंकी आचरणानुसार आचरण करनेवालोंको भावसाधु कहना उचित है । पृ.२८७, २८८. इन गीतार्थोंकी योग्यता विषयक विचारणाको प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं -- “जिन अनुष्ठानोंका सूत्रोमें कथन नहीं किया गया हैं, फिरभी करने योग्य हैं-चैत्यवंदना, आवश्यकादिवत्
और जिन कार्योंके लिए सूत्र में निषेध न किया हों, फिर भी चिरकालमें रूढि रूप चला आता है-उन सभीके लिए गीतार्थोंके चित्तमें यथोचित चिंतन-प्रकाश विद्यमान होता ही है। संविज्ञ गीतार्थ, मोक्षाभिलाषी, तत्कालीन बहुत आगमोंके जानकार और विधिमार्गके रसिक, विधिको बहुमान देनेवाले, संविज्ञ होनेसे पूर्वसूरी-चिरंतन मुनियोंके नायकोंके निषेध किये आचरण अथवा जिन्हें सर्व धर्मी लोक मानते हैं उन्हें - जाज्वल्यमान अग्नि प्रवेशसे भी अधिक साहस सदृश-बिना विशिष्ट श्रुत या अवधि ज्ञानके सहारे उत्सूत्र प्ररूपणा अर्थात् सूत्र निरपेक्ष देशना स्वरूपमें प्ररूपणा करनेके लिए कोई भी समर्थ नहीं है ।" पृ.२९४, २९५.
यही कारण है कि अमृतसरमें दिये गये आपके व्याख्यानमें आपने फरमाया था कि, “जो लोग पूर्वीचार्योंके किये हुए यथार्थ अर्थको त्याग कर सूत्रोंके मनमाने अर्थ कर रहें हैं, एवं उन्हीं मनःकल्पित अर्थोंको सत्य समझानेका आग्रह कर रहे हैं, उन भद्र पुरुषोंका परभवमें क्या हाल होगा यह तो ज्ञानी महाराज ही बतला सकते हैं, परंतु इतना तो सुनिश्चित है कि उनके लिए जघन्य गतिके सिवा और कोई स्थान नहीं। १२
अहमदाबादमें श्री शांतिसागरजीम.से वादमें, केवल दो-चार प्रश्नोत्तरमें ही विजयश्री वरनेके मूलमें यही-गुरु परंपरासे ज्ञान प्राप्तिका माहात्म्य दर्शाते हुए उन्होंने श्री शांतिसागरजी म.को अनुलक्षित करते हुए स्पष्ट किया .“यदि आप गुरुजनोंके पास रहकर इन सबका विनयपूर्वक अध्ययन करते तो आजकी यह स्थिति कभी पैदा न होती और नाहि श्रद्धाभावमें इस तरह खोट आती। स्थानांगादि सूत्रादिका तत्त्वज्ञान महज़ अक्षरार्थोंसे समझमें नहीं आता, बल्कि, गुरु महाराज जब उत्सर्ग-अपवाद समझाते हैं, सप्तभंगी, नय-निक्षेपादिसे विधिसूत्र, विवरण सूत्रादि शैलियाँका गहन अध्ययन-मनन करवाते हैं, तब जाकर कोई गीतार्थ होता है, केवल वैतनिक शास्त्री या पंडितोंसे अध्ययन करनेसे कोई गीतार्थ नहीं बनता ।" कितनी विशद एवं गहन-गंभीरगुर्वादिके प्रति श्रद्धा और सम्मान उनके हृदयमें था, यह इस प्रसंगसे अभिव्यक्त होता है । इसके अतिरिक्त तपस्वी महात्मन् प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजीम.की हस्तलिखित डायरीमें उन्होंने अपने गुरुदेव श्री आत्मानंदजी म.सा.की पुण्य स्मृतियाँ आलेखित की हैं, जिससे आचार्यदेवकी गुरुभक्ति और विनयादि गुण प्रकाशित होते हैं । तदनुसार जैन साधुवेशकी महत्ता, ज्येष्ठ दीक्षापर्यायीके साथ व्यवहार-वर्तन, लघु या वडीनीतिके लिए और आहारपानीके ग्रहणादिमें गुर्वाज्ञा प्राप्तिका महत्व, आहार-पानीकी विधि, ध्येयादि और गुर्वादिके प्रति विनय-व्यवहार-वर्तनकी रीति-नीतियोंका सुंदर मार्गदर्शन प्राप्त होता है ।
पूर्वाचार्योंके प्रति इस अखंड आस्था और भरपूर भक्तिका सिलसिला उनके जीवनके प्रत्येक पलके साथ क्षीर-नीरवत् हो गया था, अतएव जिन पूज्यजी अमरसिंहजीकी ताती नजरसे, त्रिलोचनके तृतीयनेत्र सदृश-विरोध, क्रोध,घृणादिके कारण तिरस्कार युक्त चिनगारियाँ श्री आत्मानंदजी म.सा. पर बरसती थीं, उन्हींके लिए अत्यंत स्नेहासिक्त श्रद्धासे, पूज्यजीके दिलको जरा-सी भी ठेस न पहुँचानेके लिए श्री आत्मानंदजी म.सा.ने अपने साथियोंको चेतावनी दी थी- “खबरदार, पूज्यजी जब तक जीवित हैं, तब तक हमें ऐसा
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