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राग भैरवीमें - “सुरपति सगरे जिनपति केरा, करे महोच्छव रंगे रे
थापी प्रतिबिम्ब जिनवर लेइ, पंच रूप करी संगे रे; पांडुक वनमें शिला सिंहासने, जिनवर लेइ उछंगे रे ..... शक्र बिराजे त्रेसठ सुरपति, सुरगिरि मिले मन रंगे रे; सामग्री सकल मिलावो सुरवर, खीरनिधि लावो गंगे रे.. मागध आदि तीर्थ उदकवर, औषधि मृत्तिका सुरंगे रे; इंद्र इशान लेइ खोले प्रभुने, सोहमपति मनरंगे रे .....
वृषभ रूप करी, शृंगे जल भरी, न्हवण करे प्रभु अंगे रे ....." राग खमाजमें - “कलश इंद्र भर ढारे जिणंद पर, कलश इंद्र भर दारे .....
सुर वनिता मिल मंगल गावे, आनंद हास्य अपार रे, गंधर्व किन्नर गण सब करते, गीत-नृत्य-स्वर तार रे;
देवदुंदुभि मनहर वाजे, बोले जय-जयकार रे ..... जिणंद"" ..... पूर्वाचार्योंके प्रति दृढ़ आस्था और एकनिष्ठ भक्तिः--- भारत एवं भारतीयोंके लिए संक्रान्तिकालका प्रारम्भ, अशान्ति-अव्यवस्था और अविश्वासके वातावरणमें, धार्मिक जनून ही मानो जनताका जीवनमंत्र-सा बन चूका था । लेकिन, परम और चरम प्रकारकी अहिंसाको हार्दमें छिपानेवाले जैनधर्म द्वारा उस ज़नूनमें भी सात्त्विकताका अमृत घोलकर भारतीय संस्कृति और संस्कारकी चेतनाको उजागर करनेकी कोशिश की गई है । यद्यपि जिनशासन यतिवर्ग, स्थानकवासी, तेरापंथी, बीसपंथी, अजीवपंथी, श्वेताम्बरदिगम्बर, मूर्तिपूजक आदि अनेक भागोंमें विभाजित हो चूका था, क्योंकि, आगम ग्रन्थ एवं पूर्वाचार्यकृत शास्त्रोंके स्वच्छंदतापूर्वक किये जानेवाले विपरित अर्थोंसे कुसंप, शिथिलाचार, अहंकारादि भंवरोंके मध्य शुद्ध आचारकी किश्ती भी डाँवाडोल हो गई थी ।
इन सभी परिस्थितियोंको माध्यस्थ दृष्टिबिंदुसे पर्यवेक्षण करनेवाले श्री आत्मानंदजी म.सा.की आत्मा पर करारी चोट पहुंची और उन परिस्थितियोंसे जिनशासनके उद्धार हेतु उन्होंने जीवन समर्पित कर दिया। सत्यवीर उस महापुरुषका जीवनमंत्र था-सत्यका स्वीकार और असत्यका तिरस्कार या अस्वीकार । स्थानकवासी संप्रदायके पोलके पर्देको आगमाध्ययनके झकोरने हटा दिया, सत्य प्रत्यक्ष हुआ, जिसका स्वीकार उन्होंने अपने साथियोंके साथ किया, और उस सत्यके प्रचार-प्रसारके बल पर जिनशासनके उद्धारके सफल आयोजन किये । उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि, “मैं अपनी शक्ति अनुसार भव्य जीवोंके आगे सत्य सत्य बात प्रकट करूंगा, सत्यकी खातिर मैं किसीकी भी परवाह न करूंगा, और कदम आगे बढ़ाया। नये नये मतोंके उद्भव और खंडन-मंडनके उस युगमें उन्होंने जो कार्य किये, उनकी नींवमें पूर्वाचार्योंके यथेष्ट मार्गदर्शन, उनकी विचारधारा एवं प्ररूपणाका आधार दृश्यमान होता है ।
सत्यकी प्रतिमूर्ति, सर्वथा निरहंकारी, सामर्थ्यवान, दिग्गज विद्वान, तत्कालीन जैनसंघ और जैन समाजके नायक, विनयादि अनेक गुणोपेत सुरीश्वरजीको सदैव यह खयाल रहता था कि उनका प्रत्येक विचार, वाणी, वर्तन निरंतर जिनाज्ञानुसार ही हों । कहीं भी, जाने-अनजानेमें भी, उन्हें कोई त्रुटि या गलतिका एहसास होने पर वे तत्काल उस दोषका इकरार और क्षमा याचना करनेको तत्पर रहते थे, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनकी रचनाओंमें उल्लिखित वचन ही हैं । जैसे, जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्त ग्रन्थको पूर्ण करते हुए लिखा है कि -"इन सर्व प्रश्नोत्तरोंमें जो वचन जिनागमोंसे विरुद्ध-भूलसे लिखा गया हों, उसके लिए क्षमा प्रार्थी हुँ ।" इसी तरह 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' ग्रन्थमें महत्तरा याकिनी सूनु श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.और कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्यजी म.सा.की उत्तम रचनाओंका अविकलविवरणयुक्त भावार्थ लिखकर श्रद्धापूर्ण अगाध विद्वत्ताका, विश्वको परिचय दिया है । फिर भी लिखते हैं -"महादेव स्तोत्र, अयोग व्यवच्छेद और लोक तत्त्व निर्णय-नामक ग्रंथोंकी टीका तो हमें मिली नहीं, केवल
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