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हिन्दीमें पृथक्करण शैलीमें 'बृहत् नवतत्त्व संग्रह' ग्रन्थरत्नकी अनमोल भेंट दी हैं । तत्त्वत्रयीके अपरिचितोंकी जानकारीके लिए वर्णनात्मक शैलीमें 'जैन तत्त्वादर्श' अर्थात् 'जैन गीता तुल्य' पवित्र और जीवनोपयोगी महान ग्रन्थ प्रस्तुत किया; तो ग्रन्थराज 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' में यथार्थ वीतराग देवकी कसौटी और सिद्धिको पूर्वाचार्योंके ग्रन्थाधारित दर्शाकर सृष्टि क्रम-गायत्री मंत्रार्थ, श्वेताम्बर-दिगम्बर जैन और बौद्धधर्म विषयक प्ररूपणा, भ.महावीरकी पट्ट परंपरा और गृहस्थके सोलह संस्कारादि विविध विषयोंका विशिष्ट विश्लेषणात्मक शैलीमें आलेखन किया गया है । श्री दयानंद सरस्वतीजी, राजा शिवप्रसाद "सितारे हिंद'-आदि तत्कालीन इतर दर्शनीय और माने हुए विद्वान साहित्यकारोंकी भ्रामक और विपरित प्ररूपणायें एवं यति श्री रत्नविजयजी
और श्री धनविजयजीकी श्री अरिहंतभ.द्वारा की गई प्ररूपणाके उत्थापन स्वरूप की गई उत्सूत्र प्ररूपणाओंके प्रत्युत्तरके लिए एक महान संशोधककी अदासे अनेक आगम ग्रन्थों एवं पूर्वाचार्योंके शास्त्रोंकी अनेक शहादतोंको प्रस्तुत करनेवाले 'अज्ञान तिमिर भास्कर' और 'चतुर्थ स्तुति निर्णय भाग-१-२' की ग्रन्थ रचनाः किसी ईसाईके “जैन मत परीक्षा" ग्रन्थमें किये गये आक्षेपोंके प्रत्युत्तरमें ईसाई मत समीक्षा'-आदि ग्रन्थोंमें अपने विशाल अध्ययन और अकाट्य तर्कशक्तिका परिचय करवानेवाली तार्किक और समीक्षात्मक शैलीका प्रयोग दृग्गोचर होता है ।।
इनके अतिरिक्त इतिवृत्तात्मक शैलीमें ऐतिहासिक कृति-“जैन मतवृक्ष" चित्राकृति रचना-पटालेखन और बादमें पुस्तकाकारमें प्रस्तुतिकरण करके ऐतिहासिक साहित्यमें नूतन अभिगम पेश किया; तो “सम्मति तर्क" आदि जैसे श्रमसाध्य-दुर्बोध ग्रन्थके अध्ययन-चिंतन-मनन पश्चात् उसमें जो-जो संशोधन किये हैं, उन साक्षिपाठोंक वर्तमानमें अनेक विद्वानोंने अपने विवेचनमें उद्धृत किये हैं । इन सब गद्य विधासे परे पद्य रचनाओमें अनेक कथानकोंके जिक्रके साथ विभिन्न प्रकारसे परमात्माकी भक्ति, अनेकविध परमात्म-पूजाओंकी विधानात्मक शैलीमें प्ररूपणा, श्री अरिहंत देवोंके जन्मादि कल्याणक महोत्सवोंका वर्णनात्मक शैलीमें आलेखन, 'वीसस्थानक' या 'नवपदादि की उत्तम आराधनाकी विधियोंके निर्देशन आदिमें आत्म समर्पण भावः भाविकोंको जीवन कर्तव्योंका और आत्म-कल्याणकारी उपदेश प्रदान हेतु उपदेशात्मक, वर्णनात्मक, विधानात्मक, शैलियोंका प्रयोग किया गया है ।
इस प्रकार उनके साहित्यमें विविधतापूर्ण अनेक शैलियोंका समन्वय (कहीं कहीं एक ही ग्रन्थमें दो-तीन शैलियोंका संगुंफन) प्राप्त होता है । अत्र विस्तार भयसे सर्व शैलियोंके नामोल्लेखनसे ही संतुष्टि करके दो-एक शैलीके उदाहरण ही प्रस्तुत करना यथोचित होगा । अकाट्य तार्किकताके उदाहरण स्वरूप “जैन तत्त्वादर्श"-परि. द्वितीय की वाद-चर्चा उल्लेखनीय है-“हम एक ही ब्रह्म मानते हैं, और सर्व माया जन्य है । ब्रह्म तो सच्चिदानंद एक ही शुद्ध स्वरूप है।"-वादिकी इस स्थापनाका प्रतिवाद करनेवाले उनके शब्द हैं"हे अद्वैतवादी ! यह जो तुमने पक्ष माना है सो बहुत ही असमीचीन है, यथा-माया जो है सो ब्रह्मसे भेद रूप है वा अभेद रूप ? जेकर भेद रूप हैं तो जड़ हैं वा चेतन ? जेकर जड़ है तो फिर नित्य है वा अनित्य ? जेकर कहोगे अनित्य है तो अद्वैतमतके मूलकू ही दाह करती है, क्युकि जब ब्रह्मसे भेद रूप हुईजड़ रूप हुई-नित्य हुई, फेरतो तुमने द्वैतपंथ आपही अपने कहनेसे सिद्ध कर लिया, और अद्वैत पंथ जड़मूलसे कट गया । जेकर कहोगे कि अनित्य है, तो भी द्वैतता कभी दूर नहीं होगी । क्युंकि, जो नाश होनेवाला है, सो कार्य रूप है, अरु जो कार्य रूप है, सो कारण जन्य है ..... अतः अद्वैत तीनोंकालमें भी कदापि सिद्ध नहीं होगा ।।१० इसी प्रकारकी अनेक तर्क पुरःसर दलीलों एवं पूर्वपक्ष-उत्तरपक्षके विवादसे “जैन तत्त्वादर्श" ग्रन्थके परिच्छेद द्वितीय, चतुर्थादि भरे पड़े हैं । अंततोगत्वा सुदेव-वीतराग, सर्वज्ञ, अरिहंत-सुगुरु एवं सुधर्मके स्वरूपको निर्णित किया है । अब, पद्यमें श्री अरिहंत भगवंतके जन्म बाद छप्पन दिक् कुमारिकाओं द्वारा भगवंतका जन्मोत्सव मनाया जाता है, पश्चात् चौसठ इन्द्रों द्वारा सुमेरु गिरि पर जन्मोत्सव किया जाता है, उसकी प्ररूपणा वर्णात्मक शैलीमें 'स्नात्र पूजा' ग्रन्थमें इस प्रकार की गई है
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