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________________ उनकी पर्यवेक्षक तेज़ नजरसे एक भी बात अछूती न थी । अतः उन्होंने शुष्क क्रियाकी जड़ता और शुष्क ज्ञानकी जड़ताको फूंक देनेवाली और आत्मिक प्रसन्नताको अंतरमें भर देनेवाली शुद्ध ज्ञानमय क्रियाशीलताको गन्य दिया। साथ ही उस क्रान्तिकारी सुधारकने विशाल अध्ययन-अकाट्य युक्ति और शास्त्रीय प्रमाणोंकी नींव पर आधारित आस्थायुक्त बनकर समाजमें व्याप्त त्रुटियोंको निर्भीकतासे स्पष्टतया प्रकट करके उसके लिए प्रशस्त मार्गदर्शन देते हुए जैन समाजको अधःपतनसे बचानेके लिए भरसक कोशिश की । जैन धर्मियोंकी न्यूनता प्रदर्शित करते हुए चिकागो प्रश्नोत्तर' ग्रन्थमें आपने फरमाया - जैन धर्ममें तो दोष किंचित् मात्र भी नहीं है, किन्तु शारीरिक और मानसिक, ऐसा सामर्थ्य इस कालमें इस भारतवर्षके जैनियोंमें नहीं है कि, मोक्षमार्गका जैसा कथन किया गया है, वैसा पूर्णतः पाल सकें । दूसरा, यह दोष है कि जैनियोंमें विद्याका उद्यम जैसा चाहिए वैसा नहीं है । तीसरे, एकता नहीं है, साधुओमें भी प्रायः परस्पर ईर्ष्या बहुत है । ये दोष साम्प्रतकालीन जैनधर्मीके हैं, जैनधर्ममें तो कोई भी दोष नहीं है । इस प्रकार अपने विशिष्ट अंदाजसे सामाजिक और धार्मिक कुरूढ़ियोंका निर्भीक उद्घाटन करके यथार्थ मार्गदर्शन देकर उसके युगानुरूप नूतन परिष्कृत आयामोंको पेश किया है । उन्होंने शिथिलाचारी मूर्तिपूजक हों या जिनाज्ञाभंजक मूर्ति अपूजकः रूढ़िवादी-मूढ़ या अज्ञानी हों अथवा नूतन (अंग्रेजी) शिक्षा प्राप्त-सभीको अपनी विशिष्ट एवं स्वतंत्र शैलीसे प्रभावित किया है-जिसके कुछ उदाहरण उनके व्यक्तित्वालेखनमें दर्शाये गये हैं । जैन अनेकान्तवादके व्यावहारिक और यथोचित उपयोग उनके समाज सुधार और साहित्य सृजनके कार्योंमें प्रत्यक्ष होते हैं । (१) आपने ज्ञानभंड़ारोंमें कैद अमूल्य ज्ञानवारिधिका अमृतपान, उनके अधिकारियोंसे परामर्श करके, ज्ञानपिपासुओंको करवाया-स्वयंने भी किया । (२) जैन परंपरानुसार निश्चित आगमाध्ययन हेतु योगोद्वहनको स्वीकृत करते हुए भी, अज्ञानांधकारके गोलेमें प्रवेश सदृश योगोद्वाहक साधु द्वारा शिथिलाचार स्वरूप उन आगमाध्ययनकी उपेक्षाको निभानेकी वृत्तिको उद्घाटित करके सांप्रत द्रव्य-क्षेत्र-कालादिको ध्यानमें रखकर, ज्ञानालोकसे आलोकित बननेमें उद्यमवंत जिज्ञासुओंको बिना योगोद्वहन ही आगमाध्ययनकी सुविधा प्रदान करनेकी हिमायत की । अपने इस तत्कालीन, यथोचित स्वतंत्र मंतव्यानुसार आपने डॉ. हॉर्नलेको "उपासक दशांग के अनुवाद और विवेचनके लिए पर्याप्त सहयोग भी दिया । (३) इसके अतिरिक्त धार्मिक और सामाजिक सुधारके लिए स्व-रचित ग्रन्थ द्वारा मार्गदर्शन दिया । जैसे बाल-विवाह-पर्दाप्रथादिके लिए उनका मंतव्य है-“ये प्रथायें मुस्लिम शासनकालसे ही प्रारम्भ हुईं थीं, इसके पूर्व उसे कोई जानता भी न था, अब वह समय व्यतीत हो चूका है, अतः अब उसे विदा कर देना ही उचित है । बालविवाह सर्वनाशका कारण है । इससे तन-मनका विकास रुक जाता है और व्याधियाँ कब्जा जमाती हैं । वीर्यकी परिपक्वता और पढ़ाईकी समाप्ति पूर्व विवाह न करें ।" (४) जैनधर्मके उद्भव और विकासादिके संबंधमें विभिन्न मतों एवं व्यक्तियोंके विपरित विधानों या तार्किक दलीलोंके नीरसनके लिए अनेक पूर्वाचार्योंके शास्त्रीय संदर्भाको उद्धृत करके सत्य प्ररूपणाको प्रकट करनेमें जरा-सी भी हिचकिचाहटका अनुभव नहीं किया ।(५) अन्य दर्शनकारों एवं इतर धर्मियोंके जैनधर्म पर किये गये झूठे प्रचार और गलत फहमियोंका भी पूर्णरूपेण प्रतिवाद किया। इस प्रकार उनके सामने जैसी जैसी विभिन्न परिस्थितियाँ आयीं, उनके अनुसार उन्होंने भिन्नभिन्न शैलियों में गद्य-पद्य साहित्य सृजन किया । जैसे-समाजको जागृत करके उनकी धार्मिक अज्ञानताको दूर करने हेतु कथनात्मक शैलीमें सृजन किया; तो सैद्धान्तिक प्ररूपणाओंके लिए मंडनात्मक शैलीका एवं जैनधर्म पर किये गये निराधार आक्षेपोंके प्रत्युत्तर हेतु प्रतिवाद रूपमें खंडनात्मक शैलीका प्रयोग किया गया है । जैन या अजैन-जन साधारणकी अनभिज्ञाताके विदारक प्रश्नोत्तर (संवादात्मक) शैलीमें 'चिकागो प्रश्नोत्तर' (सर्वधर्म परिषद-चिकागो), के लिए तैयार किया गया निबन्ध और 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर' आदि ग्रंथों की रचना की । संस्कृतादि प्राचीन भाषाके अनभ्यस्तों लेकिन धर्म-सिद्धान्त और तत्त्व जिज्ञासुओंके लिए सरल Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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