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समस्त भारतकी इस दयनीय दशाका प्रभाव जैन समाज पर पड़ना भी अत्यन्त ही. स्वाभाविक था । मुगल शासनकालसे ही जैन समाज और संघमें, विशेष रूपसे रीढ़की हड्डी तुल्य साधु संघमें आचार शैथिल्य-श्रमणोंके प्राणाधार कठोर संयम और कठिन आचारोंका परित्याग एवं साधु जीवनमें ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र-तंत्रादि आश्रयी गृहस्थोचित धंधे, जागीर-रसालादिका स्वामीत्वादि सांसारिक कार्यकलाप, प्रमादवश ज्ञान-ध्यान और आराधना साधनाके प्रति उपेक्षा भाव; मिथ्याभिमान और अक्खड़पनके कारण साधु समाजमें परस्पर पदप्राप्ति-नेतृत्वादिके धार्मिक झगड़े, कुसंप और बिखराव आनेके परिणाम स्वरूप प्राचीन वैभविक विरासतकी विस्मृति होना निश्चित है । साधु समाजके इस डाँवाडौल हालातका असर श्रावक समाज पर भी विपरित हुआ । गृहस्थ जीवनमें भी अज्ञान जन्य निराशा-हताशा, दिशा शून्यता और दिग्मूढ़ता, संगठन शैथिल्य, धार्मिक आचार-विचार सिद्धान्त सभ्यता और संस्कृति विषयक अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हुई । अज्ञानताकी बाँहें यहाँ तक फैली थीं कि जैनधर्मका उद्भव प्रचलन अथवा देव-गुरु-धर्म रूप तत्त्वत्रयी और दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रयी विषयक धारणायें-आदि मूलभूत और सर्वसामान्य बातोंसे भी शिक्षितवर्ग अनभिज्ञ था ।
इस प्रकार निष्कर्ष यही प्राप्त होता है कि शिक्षा, संगठन और सामर्थ्यके शैथिल्य एवं सामाजिक कुरूढ़ि रिवाजोंके चहुंकन अंधकारसे घिरे जैन समाजकी रक्षाका प्रबन्ध दुश्वार होता जा रहा था । जिन शासनके हार्द-आन-प्राण-प्रतिमा पूजन, कठोर संयमयुक्त साधु जीवन और आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञानकी जड़ें ही करारी चोटें खा-खाकर बेहोश प्रायः होने लगी थीं । ऐसे माहोलमें स्वकर्तव्यसे परिचित करवाके सुषुप्त समाजकी जागृति और तत्कालीन पर्यावरणकी परिशुद्धिके लिए किसी तेजस्वी तारककी आवश्यकताको संविज्ञ शाखीय जैनाद्याचार्य श्रीमद् आत्मानंदजी म.सा.ने पूर्ण किया । विभिन्न परिस्थिति अवलम्बित विविध रचना शैलीका परिचय :---
दार्शनिकता और धार्मिकता-उभयमें पर्याप्त भिन्नता होने परभी दोनोंमें अत्यंत नैकट्य प्राप्त होता है । यथा-दार्शनिकता, यह विचारशैली है और धार्मिकता उसी पर आधारित आचरणा । अतः जब विचारानुसार आचरण और यथा आचरण तथा विचार रूप एकत्वका प्रकटीकरण होता है, तब आत्मिक कल्याणकारी, मोक्ष-मार्गकी निःश्रेणीका उद्घाटन होता है और जीवन व्यवहारोंमें भी शम-दम-सुधारसका सिंचन होता है । दर्शन और धर्मके प्रचार और प्रसारका माध्यम है साहित्य, जिसका अचिंत्य एवं असरकारक प्रभाव बना ही रहता है । और जीवंत साहित्यके सहारे सामाजिक चैतन्यके चक्र गतिमान हो सकते हैं ।
प्रत्येक धर्मकी अपनी दार्शनिक आधारशिला, अपने धर्मशास्त्र (साहित्य) एवं धार्मिक परिपाटी या परंपरायें (आचरणा) होती हैं । प्राचीनकालसे जैनधर्मकी प्रत्येक प्रवृत्ति अनेकान्तवाद और स्याद्वादके बहुमूल्य दार्शनिक सिद्धान्ताश्रयी देखी जा सकती है । परंतु दुर्भाग्यवश साम्प्रतकालीन जैनधर्मके आचार-विचारव्यवहारमें तत्कालीन राजकीय, सामाजिक और धार्मिक पर्यावरणके कारण अज्ञानता, शंका-कुशंका और भयके जाल एवं अनेक प्रकारकी जड़ता-गतानुगतिकता और परापूर्वके रूढ़ि-रिवाज-परंपराओंकी दुहाई वाली कूपमंडूकताके दर्शन होते हैं । इस पर हार्दिक खेद प्रकट करते हुए पं.श्री दरबारीलाल 'सत्यभक्त' अपने
जैनधर्म और अनेकान्तवाद' लेखमें जो चित्र अंकित करते हैं, वाकई सोचनीय है । “हमको अपने आचार-विचार-व्यवहारादि पर अनेकान्त दृष्टिसे विचार करना चाहिए कि, उसमें क्या क्या आजके लिए 'अस्ति' रूप है और क्या क्या 'नास्ति' रूप है । ..... परंतु दुर्भाग्यवश जैन समाज यह नहीं चाहता कि उसका कोई लाल अनेकान्तका व्यावहारिक उपयोग करें, उसको कुछ ऐसा रूप दें जिससे जड़ समाजमें कुछ चैतन्यकी उद्भूति हों-दुनियाका कुछ आकर्षण हों-उसे कुछ मिले भी । जैन समाजको आज तो सिर्फ 'अनेकान्त या स्याद्वाद' के नामकी पूजा करनी है, उनके फलितार्थकी नहीं ।
. बहुमुखी प्रतिभावान् श्री आत्मानंदजी म.सा.ने इन सारी परिस्थितियोंका परिशीलन किया था ।
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