________________
जन्म दिया, जिन्हें सुलझानेके लिए नयीनयी विचारधारा और विविध दृष्टि बिन्दुओंका सहारा लेनेके लिए विवश होना पड़ा । भारतीय ज्ञान-विज्ञान या आचार-विचारका केन्द्रबिंदु पारलौकिक-आध्यात्मिक-शाश्वत या चरम लक्ष्य (मुक्ति)को स्पर्शता है और आधुनिकताके प्रवाहने भौतिक-इहलौकिक-या स्वकेन्द्रित, साम्प्रतकालीन लक्ष्यको साध्य बनाया था । फलतः विद्या, सुयोग्य वैशिष्ट्यवान् वर्ग या जनसमुदायके लिए ही नहीं, प्रत्युत सर्व सुलभ बनी, जिसे पुनरुत्थानवादियोंने प्रगतिका चिह्न मान लिया।
इन सभी गतिविधियोंके परिणाम स्वरूप सर्वसुलभ विद्याधारी अद्यतन या अफलातून प्रगतिशील समाजने अज्ञानमय जड़ता और भौतिक गत्यात्मकता एवं इहलौकिक नयी उद्भावनाओंके मार्गके अवरोधकअनन्य और अद्वितीय भारतीय दर्शन-ज्योतिष-विज्ञान-गणित-उत्तम काव्यशास्त्र और उत्कृष्टतम (सर्वोपरि) धर्मशास्त्रोंको बिनउपयोगी, गतानुगतिक, अपरिवर्तनशील-निरर्थक मानकर उनकी तरफ प्रश्नार्थ धर दिया और आधुनिकता' नामधारी उच्छंखल, वैयक्तिक, बंधन मुक्तिकी विधाता और सामाजिक बिखरावका प्रणेता, व्यक्ति स्वातंत्र्यताका आदर-सम्मान किया । 'नीत्शेकी 'ईश्वर मर गया'-की उद्घोषणासे बौद्धिक जगतमें क्रान्तिकारी परिवर्तन आया। धर्मग्रन्थोंकी निर्धारित पाप-पुण्य, धर्माधर्म, अच्छे-बुरेकी प्रामाणिक कसौटियाँ समाप्त हो गईं, और प्राचीन मूल्योंका विघटन हो गया । धार्मिकता और 'धार्मिक'को रूढ़िवादी-जड़-हीन या हास्यास्पद मानकर तिरस्कृत किया गया और परमार्थ-पारस्परिक सम्मान, विवेक-विनयशीलता-अनुशासनादिकी जड़ोंको जलाकर खाक करनेवाला स्वार्थी, स्वकेन्द्रिय, वैयक्तिक, विवेक-विनयशून्य, उच्छंखल एवं उदंड-नये पूंजीवादी समाजको श्राप रूप, भारतीय जनजीवनके मस्तिष्कके कलंकको सादर-सोल्लास स्वीकृत किया गया, जिसके प्रमुख कारण रूप माना जा सकता है, वैज्ञानिक नये आविष्कारोंके और नित्य नूतन अवधारणाओंके जालको-जिसने व्यक्तिकी किसी भी प्रकारकी निश्चयात्मकता, दृढ़ता और विश्वासको उलझा दिया । साथ ही साथ अस्तित्ववादी दर्शनने व्यक्तिक्की व्यग्रता, दुःख, निराशा और अकेलापन या असहाय स्थिति, मानसिक त्रास, आत्म निर्वासन आदिको अभिव्यक्ति दी ।
हाँलाकि सभी दोषदायी और नुकशानकर्ता वृत्ति-प्रवृत्तियोंके संपूर्ण जिम्मेवार उन नूतन लहरोंको नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि नये युग और नये परिवेशमें नूतन प्रकारसे सामंजस्यकी आवश्यकता निश्चित थी, जो नूतन तर्क-बुद्धि पर आधारित और विवेकशील एवं भावनामूलक हों । इस दुष्कर कार्यके लिए और अंग्रेज शासन एवं ईसाई मिशनरियोंके आक्रामक रूखका प्रतिवाद करनेके लिए धर्म सुधारकोंको भी नये परिवेशसे गुज़रना पड़ा । देशके विभिन्य भागोंमें भिन्न भिन्न महापुरुषों द्वारा अलग अलग धर्म सिद्धान्तोंके सहारे उन्नयन हुआ । राजा राममोहनरायने ब्रह्म समाज स्थापित करके कर्मकांड और अंध विश्वासके विरोधमें उपनिषदके सहारे एकेश्वरवादका मंड़न और मूर्तिपूजाका खंडन किया, साथ ही कुरूढ़ियोंके विरुद्ध नारा बुलंद किया । जातीप्रथा और सतीप्रथाका विरोध एवं विधवा विवाह और स्त्री-पुरुष समानाधिकारका अनुरोधः अंग्रेजी शिक्षा प्रणालीकी हिमायत और ब्रिटीश राज्यकी प्रशंसा करनेवाले सर्वप्रथम व्यक्ति वे ही थे । एकेश्वरवाद और वेदोंकी अपौरुषेयताको लेकर दयानंदजीने आर्यसमाज रचा और सामाजिक सुधार एवं शिक्षाका प्रचार किया । भागवत और वैष्णवधर्मके हार्द-भजन कीर्तनके स्वरूपानुरूप श्री केशवचन्द्र सेनने प्रार्थना समाजकी रचना की, जिसके प्रमुख उन्नायक पाश्चात्य विचारधारासे प्रभावित महादेव गोविंद रानाड़े थे । अस्पृश्यताके विरोधी और मानवीय समानताके प्रचारक, आत्म सम्मान और राष्ट्रीय गौरवके हिमायती एवं विदेशोमें भी श्री वीरचंदजी गांधी सदृश श्रेष्ठतम भारतीय संस्कृतिके प्रचारक श्री विवेकानंदजी 'श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेशोंके प्रचारक बने । भारतीय धर्म सिद्धान्ताश्रयी श्रीमति एनी बेसेंटकी थियोसोफिकल सोसायटीका भी प्रचार हुआ । इस प्रकार एक ऐसा आभास मूर्त रूप ले रहा था कि नवयुग और नवचेतनाका प्रकाश पश्चिमसे पूर्वकी ओर आ रहा है। लेकिन, याद रहें, प्रकाशपूंज आदित्यका उदय पूर्वांचलमें ही होता है जिससे विश्व आलोकित होता है । अतः उन धार्मिक महात्माओंके प्रयत्नसे भारत, यूरोप बननेसे बच गया ।
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org