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प्रवर्तन, देशभक्ति भावनाळी जागृति, हास्य या व्यंग्यात्मक रूपमें धार्मिक और सामाजिक कुरूढ़ियों एवं कुरिवाज़ो पर कुठाराघात, भगवद् भक्ति आदि भावोंकी प्ररूपणा पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, धार्मिक या काल्पनिक कथानकोंको लेकर की गई । उपन्यास--गद्य साहित्यकी महत्त्वपूर्ण शाखा-उपन्यासके क्षेत्रमें श्री निवासदास, जगमोहन सिंह, बालकृष्ण भट्ट, राधाकृष्णदास, अयोध्यासिंह उपाध्याय, अंबिकादत्त व्यास, देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गहमरी आदि लेखकों द्वारा सामाजिक, तिलस्मी, अय्यारी, जासूसी, ऐतिहासिकादि अनेक प्रकारके काल्पनिक, भावप्रधान, उपदेशात्मक, हास्य-व्यंग्य प्रधान, प्रणय निरूपणात्मक, घटनात्मक, वर्णनात्मक, कौतुक प्रधान उपन्यासोंकी रचनायें संस्कृतनिष्ठ, अलंकृत भाषायुक्त चलती-मुहावरेदार-विविध भाषा शैलियोंमें की गई । इनके अतिरिक्त कहानियाँ, आलोचना, जीवन चरित्र, यात्रा वर्णन आदि विविध साहित्य विधाओंका भी उस युगमें किसी न किसी रूपमें सूत्रपात हुआ । इन्हें वेगवान बनानेवाले पत्रिका साहित्यका भी अत्यधिक महत्त्व है ।
उपर्युक्त साहित्य विधाओंके साथ साथ वाङ्मयकी अन्य उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण विधाओंका भी आलेखन हुआ, जिसमें भौगोलिक, वैज्ञानिक, राजनीति एवं अर्थनीतिकी प्ररूपक रचनायें; अनेक ललित एवं उपयोगी कलाओंका निवेशक-कलात्मक साहित्यः व्याकरण, कोश, न्याय, तर्क, धर्म, दर्शनादि अनेकविध वाङ्मयका प्रादुर्भाव-मुद्रणयंत्रके उपयोगके कारण और पत्र-पत्रिकाओंके प्रचलनके कारण हिन्दी साहित्यका विशद मात्रामें निर्माण-प्रचार और प्रसार इस युगमें हुआ ।।
तत्कालीन-युगीन साहित्यके अध्ययनसे हमें अनुभव प्राप्त होता है कि भारतेंदु युग प्राचीन और अर्वाचीनके संधिकाल पर स्थित है, अतः उस युगकी चिन्तनधारा दो प्रवाहोंमें बहती है . (१) अतीतके गुणगान और (२) पाश्चात्य वाङ्मयकी प्रेरणा ग्रहण करके सामाजिक कुप्रथाओंके प्रति गहरा असंतोष । फिर भी दोनोंका स्वर विद्रोहात्मक नहीं, समन्वयात्मक ही रहा है । कहीं पर तो विक्टोरियाकी सुधारवादी शासन-नीतिका गुणगान हैं, तो कहीं समाज विकासकी आवश्यकता और जातीय गौरवयुक्त देशभक्तिकी बुलंदी है । “इस युगकी कविताका बहुल अंश वस्तु निष्ठता, बुद्धिवादिता, वर्णनात्मकता और इतिवृत्तात्मकतासे युक्त है; किन्तु कुछ कवियोंके काव्यमें सौंदर्यवादी जीवनदृष्टिका उन्मेष भी मिलता है । अपने कृतित्वको मानवताके बृहत्तर आयामोंके साथ जोड़नेकी दिशामें कवियोंकी अपेक्षा गद्यकार ही अधिक सक्रिय रहे हैं ।"६.
ब्रिटिश शासनके प्रति विरोधका भाव प्रायः प्रत्येक साहित्यकारके मनमें विद्यमान था । देश और समाजके हितकी भावनासे सभी भावित थे । साहित्य सर्जनकी दृष्टिसे हिन्दी गद्यकी प्रायः सभी विधाओंका सूत्रपात इसी युगमें हुआ. विशेषतः नाटक एवं निबन्ध-इन दो विधाओमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई। व्यापक जागरणका संदेशवाहक इस कालका साहित्य जीवनकी गतिके साथ जुड़ा और साहित्यकारोंके अदम्य उत्साह, हिन्दी भाषाके प्रति अतूट निष्ठाके साथ पत्र-पत्रिकाओंके प्रकाशनके कारण उसकी परंपरा वेगवान हो सकी, “उन्होंने हंसते-हंसते अपनेको उत्सर्ग करके हिन्दीके विशाल भवनका निर्माण किया, जिसे सजाने-संवारने और मूल्यवान उपकरणोंसे अलंकृत करनेका कार्य द्विवेदी युगके साहित्यकारों ने किया ।" धार्मिक-साहित्यके संदर्भमें आधुनिक काल' शब्दसे दो दृष्टिकोण फलित होते हैं-(१)मध्यकालका परवर्तीकालजिसमें रूढ़िवादी जड़ता और धार्मिक स्थिरता या एक रसता रूप अवरोधोंसे मुक्त नूतन गत्यात्मक चेतना प्रदर्शक साहित्य रचनायें और (२) अध्यात्मसे आधिभौतिक विचार सरणी व्याप्तकाल, जिसमें स्वयंकी सुधबुध विसर्जित करा देनेवाली पारलौकिक आस्थासे अत्यधिक आच्छन्न पर्यावरणको नयी चिंतनधाराके दार्शनिक एवं धार्मिक चिंतकों, प्रसारकों एवं प्रचारकों द्वारा सुधार-परिष्कार और पुनराख्यायित करके नूतन-आधिभौतिक दृष्टिकोणसे प्रस्तुतीकरण प्राप्त होता है । केवल धार्मिक एकतामें आबद्ध भारतीय समाज उस युगमें राष्ट्रीय एकताके प्रति झुक रहा था, तो प्राचीन जाती प्रथायें नये ही आर्थिक वर्गों-उच्च(अमीर)वर्ग, मध्यम वर्ग, निम्न(श्रमिक वर्ग में विभाजित या परिवर्तित होने लगी थीं, जिनका उन पुनरुत्थानके संक्रान्तिकालमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है । उन आर्थिक परिवर्तनोंने अनेक उलझनों और समस्याओंको
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