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________________ प्रयास किया, लेकिन कुछ धर्मान्ध शासकोंके अतिरिक्त अन्य सभी समदर्शी शासकोंको सामाजिक आदानप्रदानकी स्वस्थ परिपाटी आज़माकर समन्वयका ही स्वीकार कर लेना पड़ा । इस प्रकार सामाजिक स्वरूपमें अविकसित मुगल शासकोंके विजयमें भी भारतीय सभ्यता-संस्कृतिसे पराजित होनेके भाव चिह्नित होते हैं । उनके आक्रामक-धार्मिक ज़नूनके कारण भारतीय रूढि परम्परामें और सामाजिक एवं शैक्षणिक क्षेत्रोंमें भय और आतंककी लहरसे निराशा और हताशा छा गयी । उन क्षेत्रोंमें विकासशील प्रगति पर तो विराम-चिह्न ही लग गया, साथ ही कुंठित भावनाओंको सहन करने पर उन्हें विवश बनना पड़ा। मुस्लिम शासनके कारण बाल-विवाह, पर्दाप्रथा, सती-प्रथा और स्त्री-पुरुषकी असमानतादि नारीदमनके विरूप दृश्य दृष्टिगोचर होने लगे । तदनन्तर मुगल शासनके स्वर्णिम युगमें ही स्वार्थी योरपीय प्रजाओंका आगमन-आक्रमण और आपात स्थितिका निर्माण आकार ले रहा था । परिणामतः शनैः शनैः पूंजीवादी अंग्रेजोंके शासनकालमें-उन्नीसवीं शतीमें सभ्यता और संस्कृति, सामाजिक और शैक्षणिक, आर्थिक और राजकीय, कृषिक और औद्योगिक आदि अनेक परंपरित एवं व्यावहारिक क्षेत्रोमें आमूल परिवर्तन हुए । अंग्रेजोंने निजी स्वार्थके लिए भारतीय समाज और देशको लूटा, व्यापार नष्ट किये, गृह-उद्योगादि हुनर और अन्य जातीय व्यवस्था-ग्रामीण व्यवस्था तूट गई, एवं जमींदारी प्रथा लागू होनेसे जमीनका क्रय-विक्रय और कृषिका व्यावसायिक रूप एवं महाजनी सभ्यतादिमें ग्राम्यजीवन उलझ गया । यातायातकी सुविधा और औद्योगिक क्रान्तिके पोषण रूप क्रय-विक्रयके लिए बाज़ारोंका अस्तित्र सामने आया । ग्रामीण उद्योग-धंधे तूटनेसे अधिकांश समाजका जीवनाधार केवल कृषिकर्म रह गया । इन सभीके शिरमौर रूप तत्कालीन प्राकृतिक प्रकोप-अकालमहामारी आदिके नागपाशमें बंधा भारतीय समाज राजकीय प्रभावों-पंचायती सरल ग्राम्य-व्यवस्थाके स्थान पर जटिल कोर्ट-कचहरियोंके जालसे भी त्रस्त हो उठा था । शहरी समाजकी परिस्थितियाँ भी ग्रामीणोंसे अच्छी नहीं थीं । शहरी जनजीवनमें भी पुनरुत्थानकी एक नयी लहर-शायद जिसे 'राष्ट्रीय जीवनकी बसंत' उपनाम दिया गया था और प्रगतिशीलताकी चकाचौंध अपना रंग जमा रही थीं: जिनके कर्णधारके रूपमें अनेक राष्ट्रीय और धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक या साहित्यिक नेता-प्रणेताओंके दर्शन हमें होते हैं-यथा-ब्रह्मसमाज संस्थापक-तार्किक और बौद्धिक राजा राममोहनरायः प्रार्थना-समाजके सूत्रधार-मेधावी-विधिवेत्ता, वैज्ञानिक विचार शैलीयुक्त-पूर्वग्रहोंसे मुक्त, पुनरुत्थान वादियोंके विरोधी, समान मानवाधिकारवादी और आंतर्जातीय विवाहके पक्षकार श्री महादेव गोविंद रनाड़े, आर्यसमाजके प्रवर्तक-मूर्तिपूजा उत्थापक और एक वेदमत एवं एकेश्वरवादके संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती थियोसोफिस्ट श्रीमति एनी बेसेंट: साधारण ब्रह्म समाज और नववेदांत संचालक श्री केशवचंद्र सेन, गरीब-गंवार (आत्मिक समृद्धि और सामर्थ्यसे ऋद्धिवान्) अनपढ़, रोगी-मित्रहीन, मूर्तिपूजक-हिन्दुभक्त, श्री विवेकानंदजीके गुरु और समस्त बंगालको झकझोरनेवाले स्वामी रामकृष्ण परमहंसः विश्वधर्म परिषद, चिकागोमे हिन्दु संस्कृतिकी शान और आनको पुनः स्थापित करनेवाले तन, मन, आत्मिक शक्तिवान् और आत्म सम्मान एवं राष्ट्रीय गौरव प्रदाता-धर्मके हिमायती और जाति-सम्प्रदाय-अस्पृश्यतादिके विरोधी, गरीबोंके बेलीरामकृष्ण मिशन के प्रस्थापक श्री विवेकानंदजी: स्वामी रामतीर्थ, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, श्री प्रेमचंद राय, लाला लाजपतराय, स्वातंत्र्य सेनानी बाल गंगाधर तिलक, गोपालराव, पं. मदनमोहन मालविया आदि । साहसिक, सेवाभावी, देशभक्त और आत्म बलिदानके लिए तत्पर सभी महापुरुषोंके भगीरथ पुरुषार्थके परिणाम रूप भारतमें नवजीवनका संचार हुआ । उनका लक्ष्य था पश्चिमीकरण किये बिना ही प्राचीन वैभव-समृद्धि और पवित्रता युक्त भारतकी स्वतंत्रता । परस्पर विरोधी दर्शित होनेवाले भारतीय जनजीवनके उन हितस्वियोंकी प्रवृत्तिके प्रवाहोंकी तेजी-मंदीके कारण कभी सामाजिक सुधारको प्राधान्य मिलता था, तो कभी शैक्षणिक क्षेत्रको, कभी राजकीय चहल-पहलको अग्रीमता प्राप्त होती थी, तो कभी धार्मिक प्रवाहोंका गान गूंजीत होता था । अंततोगत्वा उन नेताओंकी मूल रूपसे दो प्रकारकी प्रवृत्तियाँ हमें उपलब्ध होती (3) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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