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हैं-राष्ट्रीयतावादी और स्वच्छंदतावादी । “दोनोंके मूलमें वैयक्तिकता, अतीतके गौरवका भाव, विदेशी सत्ताके विरुद्ध आक्रोश, गाँवोंकी बढ़ती गरीबीके प्रति सहानुभूति-स्वतंत्रता और समानताके प्रति आग्रह आदि प्रवृत्तियाँ क्रियाशील थीं विस्मृतिके गर्भमें विलीन भारतीय साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, वास्तु, स्थापत्य कलादिके पुनरुद्धारक-पुरातत्त्ववेत्ता और पुरालेखविदोंने अतीतके गौरवके प्रति जागृति फैलानेमें अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे समस्त संसार में भारतीय संस्कृतिका गौरव और आत्मसम्मान, पाश्चात्य संस्कृतिके सामने उन्नत मस्तक हो सका । २
इसके साथ ही शिक्षण संस्थाओंके स्वरूपोंमें भी आमूल परिवर्तन हुए, जो आधुनिकीकरणके उस कालमें पाश्चात्य शिक्षा प्रणालीको अंगीकार करके पश्चिमी ज्ञान-विज्ञानसे परिचय करनेके लिए लक्ष्य करके किये गये । पाश्चात्य शिक्षण प्रणालिकासे रीति-नीति, आचार-व्यवहार, वेशभूषादिमें सीमातीत परिवर्तन, स्वार्थी वैयक्तिकता और उदंड उच्छंखलतादिका साम्राज्य स्थापित हुआ: तो अस्पृश्यता और जातिप्रथाका विरोध-नरनारीकी समानता-स्वतंत्रता-स्वच्छंदतादिका समर्थक एक नया ही मानवतावाद अस्तित्वमें आया । इन सबके मूलमें परिवर्तीत अनेक परिस्थितियाँ ही हेतुभूत हुईं थीं । अंग्रेजोंके ही स्वार्थवश स्थापित की गई आधुनिक अर्थ व्यवस्था यंत्रयुगीन औद्योगिकरण-संचार सुविधा प्रेस(मुद्रण) सुविधा-नयी शिक्षाप्रथा आदिसे भारतीय समाजका कुछ हित भी अवश्य हुआ । भारतीय समाज प्राचीन परिपाटीकी स्थिर व्यवस्थाओंसे मुक्त होकर स्वतंत्र गत्यात्मकताका अनुभव करने लगा और नूतन परिवेशमें ढलने लगा । मुगलोंकी धार्मिक असहिष्णुता और आक्रामक अत्याचारोंके कारण हिन्दुओंका जो धार्मिक शोषण हुआ था, ब्रिटिशरोंके शासनकालमें अधिकांशतः उनसे मुक्ति प्राप्त हुई । श्री आत्मानंदजी म.के उद्गारोंमें उनकी प्रशंसा देखें-“हम धन्यवाद देते हैं अंग्रेजी राजको, जिनके राजतेज़से सिंह-बकरी एक घाट पानी पीते हैं । किसी मतवालेकी शक्ति नहीं, जो दूसरे धर्मवालेको गरम आंखोंसे देख सकें ।"३
उस सुधारणा रूप संक्रान्ति कालमें अधिकांश समाज-सुधारक नेतागणने, समाज सुधारके अति आवश्यक अंग 'धर्म' पर ही बल देते हुए क्रान्तिकी मशाल प्रज्ज्वलित की । राजा राममोहनराय जैसे शुद्ध बुद्धिवादीको भी 'सतीप्रथा के उन्मूलनमें धर्मशास्त्रोंकी गवाही देनी पड़ी; तो ईश्वरचंद्र विद्यासागर द्वारा सिद्ध किया गया कि, वैधव्यका कोई विधान धर्मशास्त्रोंने नहीं किया है । श्री दयानंदजी द्वारा समाज सुधारको वैधता देनेके लिए वेदोंके मनघड़त-विपरितार्थ भी किये गए । इस तरह सामाजिक कुरूढ़ियोंको उच्छिन्न करनेमें अतीतकी गौरवान्वित विरासतका ही किसी न किसी रूपमें उपयोग किया गया, जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय जन-समाजका आत्म सम्मान जागृत होकर पाश्चात्य रूखसे बराबरीका सामना करने और अंग्रेजी शासनकी परतंत्रतासे स्वतंत्र बननेके स्वप्न देखने लगा।
इतना होने पर भी हम कहेंगे कि इन सभी नवनिर्माण-सुधार-उत्थान और उत्क्रान्तिका श्रेय स्वयं भारतीय संस्कृतिकी मज़बूत नींव-पारंपरिक गौरव गाथाओंका संबल और निजी विशिष्टतायें ही हैं, क्योंकि जातीय पुनरुत्थानके लिए समाजको अन्यके अनुभवसे लाभ मिल सकता है, लेकिन सर्वथा नवीन सांचेमें उसे नहीं ढाला जा सकता । यह तो स्पष्ट ही है कि, कोई भी जाति पूर्ण रूपेण निजी विशिष्टताओंका न त्याग कर सकती हैं, न अन्यमें पूर्ण रूपेण विलीन हो सकती है । इसी तथ्यके अनुरूप भारतीय जातीके अनुपम आध्यात्मिक और नैतिक तत्त्व, आधुनिक-भौतिक जड़वादके तरंगी तूफानों या तो विप्लवकी आंधियोंमें भी नष्ट नहीं हुए: क्योंकि उनमें स्थिरता बक्षनेवाली अत्यंत गहरी-सशक्त धार्मिक और सांस्कृतिक जड़ें विद्यमान थीं, जो उन्हें विस्फोटक प्रभाव रूप मृत्यु संकटको भी चकमा देकर स्वयंके गौरवको अमरता बक्षनेका सामर्थ्य रखती थीं । अतः सामाजिक और सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक-पुनरुद्धारसे भारतीय जनजीवनमें नये संचार प्रसारित हुए । उन समाज सुधारकों, आंदोलनकारों अथवा विप्लवकारियों और नेता-प्रणेतादिके द्वारा कुरूढ़ि, अंधविश्वास, विपरित आचरणाओं, सामाजिक कुरीति-रिवाजों, असमानताओं आदिके विध्वंस करते हुए, धार्मिकता, सांस्कृतिकता और सामाजिकताकी सामर्थ्यशाली नींव पर आधुनिक पुनरुत्थानके
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