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________________ बौद्धिक कल्पना वैभव, सूक्ष्म भावोंको वायु लहरियाँ सदृश स्पंदित कर सकता है; वाङ्मयको जीवंततामार्मिकता एवं तर्क संगततासे समृद्ध बनाता है और विवक्षित कृतिको चमक-दमक, रमणियता और रुचिरता, कोमल स्वाभाविकता, मनोवैज्ञानिकता और ध्वन्यात्मकता अर्पित करता है । ऐसे सक्षम साहित्य मनीषीकी सर्जन-सृष्टिमें विहार करने पूर्व तत्कालीन वातावरणका परिचय अस्थानीय न होगा । तत्कालीन परिस्थितियाँ :- तत्कालीन जनजीवन रूपी क्षेत्रमें नूतन विचारधाराओंके बीज वपन होनेके पश्चात् नवीन भावधाराओंकी वृष्टि, आंतरिक क्रान्तिकी सकपकाहट और आंदोलनोंकी गरमीके कारण नूतन साहित्यिक अंकूर प्रस्फुटित हुए, जिसके सायेमें साम्प्रतकालीन परिवर्तनशीलता-प्रगतिशीलता और प्रच्छन्न प्रवृत्तियोंने साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक (धार्मिक) व राजनैतिक क्रान्ति एवं नवचेतनाके उद्भावको प्रसूत किया । उन तत्कालीन परिस्थितियोंका विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है । राजकीय परिस्थितियाँ-यद्यपि भारतके नैतिक-राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक आदि प्रत्येक क्षेत्रमें पतनकी श्रेणियोंके मंडाण योरपियोंके पदार्पण पूर्व ही हो चूका था, फिर भी अठारहवीं शतीके उत्तरार्धमें उसका स्पष्ट रूप उदीयमान आदित्यकी तरह झलकने लगा । ब्रिटिशरोंकी नकली नम्रता-खुशामदखोरी-कपट और रिश्वतखोरी; साथ ही हिन्दुस्तानियोंका मिथ्या स्वाभिमान, पारस्परिक फूट और आंतर्संघर्षके परिणाम स्वरूप मुगल-मराठा-सिक्ख-राजपूतादि सभीको येन-केन-प्रकारेण परास्त करनेवाले ब्रिटिशरोंका प्रभाव समस्त भारतवर्ष पर-कश्मीरसे कन्याकुमारी और बर्मासे पश्चिमोत्तरी सीमा प्रांत पर्यंत विस्तीर्ण हुआ । अतः अंग्रेजशासक मदोन्मत्त बने । फलतः उनकी मनस्वी और उच्छंखल नीतियोंसे वाज़ आये हुए, असंतुष्ट-अनेक देशी रजवाड़ोंने परस्पर एकत्रित होकर ई.स.१८५७में व्यापक रूपमें विद्रोह किया । लेकिन ईस्ट इन्डिया कंपनीके चुंगालसे अपना पल्ला छुड़ाकर भारतीय जनजीवन ब्रिटिश साम्राज्यके जालमें बूरी तरह उलझ गया, जिसने भारतीयोंके आर्थिक-शैक्षणिक-सामाजिक-धार्मिक-व्यावहारिक-प्रत्येक क्षेत्रके मूलको ही परिवर्तित करनेमें अक्सीर इलाजकी भूमिका अदा की । भारतीय उद्योगधंधोंको अमानुषिक रूपसे नष्ट-भ्रष्ट करके प्रजाका आर्थिक शोषण प्रारंभ हुआ, परिणामतः उनके देशमें भारतीय स्वर्णकी वर्षा होने लगी और इंग्लैंड़की औद्योगिक क्रान्ति सफल हरियालीको प्राप्त हुई। जबकि भारतीय औद्यगिक हालातमें दारिद्रता-बेकारी-विवश निराशा और हताशाके पंजोंका प्रसार हुआ । ब्रिटिश उपनिवेश बने भारतके लिए अंग्रेजोंने अपनी नूतन प्रशासकीय नीतियों द्वारा आर्थिक एवं शैक्षणिक प्रणालिकाओमें आमूल परिवर्तन किये, जिसका असर समाज जीवन और धार्मिक क्षेत्रान्तर्गत भी होने लगा । भारतवासी भी इन नूतन परिस्थितियोंमें जीवनका नया अंदाज़ सोच समझकर पेश करने पर विवश हुए । इन सभी परिस्थितियोंका नतीजा यह हुआ कि, तंग आर्थिकता-विक्षुब्ध सामाजिकताविद्रोही एवं उच्छंखल अधार्मिकता-शैक्षणिक स्वच्छंदताकी जन जीवनको झुलसानेवाली चिनगारियाँ चमकने लगीं, जिसने अधिकतर मानवीय सुख-दुःखको साहित्यके माध्यमसे जन जीवनमें उत्तागर करनेवाली एक नयी चेतना प्रदान की । सामान्य लोकजीवनसे जुड़नेवाली नये युगकी भावाभिव्यक्तिके लिए आधुनिक जागृत चेतनासे सक्षम बननेवाली, जन साधारणमें व्याप्त खड़ी बोलीमें गद्यमय प्ररूपणाओंने आकार लिया। यह साहित्यिक उत्थान आधुनिक कालके प्रमुख साहित्यकार भारतेन्दुजोके नामसे प्रसिद्धिमें आया । सामाजिक परिस्थितियाँ-आधुनिक भारतमें उन्नीसवीं शताब्दीमें बहुमुखी पुनरुत्थानका प्रारंभ हुआ, जिनके अंग स्वरूप सामाजिक उत्थानको भी प्रश्रय मिला । परापूर्वसे अनेक जाति-उपजातियोंमें विभक्त भारतमें पारस्परिक एकताका सर्वदा अभाव था । परिणाम यह आया कि, स्थानीय भारतीय, बाह्य आक्रामकों-मुस्लिम, ईसाई आदिके सामने पराजित होते गये । इन सबका गहरा प्रभाव भारतीय समाज व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था पर पड़ना अत्यन्त स्वाभाविक था । लेकिन, सोलहवीं शती पर्यंतके विजेता सभ्यता और संस्कृतिके क्षेत्रमें अविकसित या अर्धविकसित थे, अतः उन्होंने उत्कृष्ट भारतीय संस्कृतिके साथ समन्वय करके उसे अपनाया और भारतीय समाजमें घुलमिल गये । मुस्लिमोंने धार्मिक आक्रामकताके बल पर हावी होनेका (2) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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