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ॐ ह्रीं ऐं नमः
पर्व प्रथम श्री आत्मानंदजी महाराजजीका गद्य साहित्य “षखंड भारतधरा वदनेऽच्युतस्य, वर्षे यथा षडतवश्च रसाः षडुाम्; षड्दर्शनस्य मुनिराज ! तथा यशेष,
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकास हेतु ! प्रास्ताविक-सहस्त्रों वर्षों के भारतीय जनजीवनके नैतिक-धार्मिक-आर्थिक-सामाजिक-साहित्यिक-राजनैतिक और ऐतिहासिक-प्रत्येक क्षेत्रके इतिवृत्त रूप उदित और अस्त होनेवाली अनेक क्रान्तियोंके जिज्ञासु अध्येताका अनुसंधान सिद्ध हो सकता है, केवल महापुरुषोंके जीवन-चरित्रके अध्ययन-सामाजिक परिवेशमें, महान नेतायुगवीर पुरुषोंकी जीवनगाथाओंके अनुशीलन-ऐतिहासिक एवं राजकीय पृष्ठभूमिमें; महान संत-साधु पुरुषोंके जीवनोद्यानका अनूठा आस्वादन-धार्मिक प्रावधानमें और महान साक्षर-विद्वद्वोंके जीवन-शृंगारका प्रासादिक आह्लाद साहित्यिक परिप्रेक्ष्यमें । उन विरल विभूतियों द्वारा जन-समाज और देशकी परिस्थितिका परिशीलन करके उनकी योग्यता और सामर्थ्यानुसार तत्कालीन सामाजिक-राजकीय-धार्मिक विकृतियोंका सुधार-परिष्कार और परिमार्जन करते हुए उन्हें अपने चरमलक्ष्य-परमसुख और आत्मिक समृद्धिकी ओर निर्बाध रूपसे अग्रेसर करनेवाली अनुपम सेवा प्रदान की गई है । _ ऐसे ही पुनरुत्थानके अद्यतन युगके साम्प्रत युगीन जनजीवनकी बसंतका आगमन सूचित करनेवाले बीसवीं शतीके आंदोलनोंमें भी इन्हीं प्रेरक शक्ति स्वरूप महात्माओंने अपना योगदान दिया है, जिनमें धार्मिक और राष्ट्रीय (देशभक्तिके) भावोंको उल्लेखनीय स्थान दिया जा सकता है। जिनको समृद्ध, सोत्साहित और संचारित करनेका श्रेय उन प्राज्ञों द्वारा निर्मित प्रेरणात्मक और उपदेशात्मक साहित्य निर्माणको दिया जाना चाहिए । इस परिप्रेक्ष्यमें हमारी चक्षुपटलको आकर्षित करते हैं, उस क्रान्तिकारी आंदोलनोंकी सलवटको स्वस्थ रूप प्रदाता-युगनिर्माता-बहुआयामी-प्रतिभा सम्पन्न विद्वद्वर्य श्री आत्मानंदजी म.सा.का तेजस्वी व्यक्तित्व, ओजस्वी वक्तव्य और धीमयीत्व वाङ्मयकी विशदता । अतः हम उनके साहित्य-सृजनके अधिकांशको सुशोभित करनेवाली गद्य-विधाका परिचय यहाँ प्रस्तुत करते हैं ।
वाङ्मयकी दो विधायें-पद्य और गद्य-एक है मर्यादित स्वरूपाकारमें संक्षिप्त या खुर्द, फिर भी तीव्र वेगसे कूदता-फांदता, दिलकी चट्टानोंको हिला देनेवाला-मतवाला निर्झर, और एक है शांत, गंभीर, विशद प्रवाहको समेटे हुए महानद या महासमुद्रका अवतार; एकमें भावोंकी समर्थ सूक्ष्मता, प्रबल संप्रेषणीयताके साथ अल्पातिअल्प शब्दादि सामग्री द्वारा सुनिश्चित एवं मार्मिक अभिव्यक्तिके दृश्य दृग्गोचर होते हैं, बल्कि दूसरेमें अनेक विषय वैविध्यतानुरूप भावनासे आनुषंगिक वैचारिक भरमारोंको प्रवाहित होनेके लिए अनेक प्रवाह मार्गोका विस्तीर्ण पट पैला हुआ है; एकमें कवि-कौशलका परिपाक अलंकार-प्रतीक-बिम्ब-छंद-रसरागादि रूपमें लहलहाता है, जबकि दूसरेमें कृतिकारकी कसौटीके दर्शन होते हैं - क्योंकि गद्यके विस्तृत साहित्य फलक पर फैले संतुलित तत्त्वोंके, बुद्धिबलसे निश्चित विचारधाराको सुनिश्चित प्रवाहमें, सुगठित शैली और मनोवैज्ञानिक विशिष्टताओंके साथ प्राभाविक रूपमें उद्भावित करना दुरूह कार्य अवश्य है | एक कुशाग्र लेखक बुद्धि-कल्पना और संवेदनाओंसे अपनी रचनाको प्रांजल बनाते हुए, पाषाणसे प्रतिमा-रचना रूप हस्तसिद्ध कला द्वारा पाठककी अदम्य अभिलाषाओंको-वेदना-संवेदनाओंको झकझोरकर स्वयंके अभीष्ट लक्ष्यको सिद्ध कर सकता है । गद्य लेखकके मस्तिष्ककी उद्भावना अभिभावकके हृदयगत भावोंको संवेदित करनेवाले सार्थक आलेखनसे साधना और शिवत्वके सामंजस्य रूप-भीतरसे सुंदर और बाह्य परिवेशमें सम्माननीय साहित्य सृजन निष्पन्न करती हैं । लेखकका स्वाभाविक-सरल-मधुर और लाघवयुक्त, निपुण
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