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स्थान मानते हैं ।
उनके माता-पिता और बाल्यावस्थाके लिए यह मान्यता है कि, उनके पिता श्रीआत्माराम दुबे और माता हुलसी-पत्यौजा दुबे-थे । जबकि 'तुलसी-चरित' अनुसार उनकी पितृ परंपरा है- परशुराम मिश्रके पुत्र 'शंकर के पुत्र 'रुद्रनाथ के पुत्र 'मुरारि के पुत्र तुलाराम- तुलसीदासजी हुए । तुलसीजीके गुरुका नाम नरहरिदास था । उन्होंने निम्नांकित शब्दोमें 'नर रूप हरि' को वंदनाकी है .
“बन्दउं गुरु पदपंकज कृपासिंधु नर रूप हरि८ गोस्वामीजीका विवाह भारद्वाज गोत्रके ब्राह्मण श्री दिनबंधु पाठककी बेटी-रत्नावलीसे हुआ था । पत्नीमें अत्यन्त आसक्त तुलसीको एक बार मायके गई हुई पत्नीके पीछे पीछे जाने पर पत्नीसे मधुर भर्त्सना मिली - “लाज न आवत आपको दौरे आयेहु साथ, धिक् धिक् ऐसे प्रेमको कहा कहहु मैं नाथ ।" और आगे परमात्म प्रीतिकी ओर मोड़ देते हुए कहती है - “अस्थिधर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति, होती जो श्री राम महं होति न तो भवभीति" । इन वचनोंके प्रत्याघातसे जागृत विवेकने उन्हें श्रीरामकी परमभक्तिरस सरितामें स्नान करनेका मार्ग प्रशस्त किया और राम भक्ति प्रदर्शित करनेवाले विशद वाङ्मयकी रचनाकी ओर उन्मुख किये ।
साहित्यकारके जीवन प्रसंगोंका उनके साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है । जन्मते ही मातापितासे त्याज्य इस अनाथ और अभागे बालकके भाग्यमें ब्रह्माने भी कुछ भलाई नहीं लिखी - “मातु पिता जग जाय तज्यो, बिधि हू न लिखि कुछ भाल भलाई।८० अतः वह मुंहसे 'रामनाम' बोलता था, टूकटाक मांगकर खाता था (हनुमान बाहुक-४०) कंगाल हालतमें रोटीके टूकडेके लिए दर-दर डोलनेवाले इस 'रामबोला'को केवल चार दाना चनेकी प्राप्ति पर इतनी प्रसन्नता होती थी मानो उसे धर्म-अर्थ-काममोक्ष-चार फल प्राप्त हुए हों (कवितावली-७/७३) रामबोलाकी ओर देखकर दुःखको भी दुःख होता था (विनय पत्रिका-२२७) । रामकथा गायनने ही उसे किसी तरह जिंदा रखा । “तुलसीकी बौद्धिक उपलब्धि सीमित थी । अतः लोकजीवन, लोक परंपरा और लोकचित्तके धरातल पर उसके भावुक हृदयकी थिरकन बजती रहती थी ।८१ जबकि डॉ. नागेन्द्रजीके अनुसार “विनय पत्रिका आदि अंतःसाक्ष्यके आधार पर पिता द्वारा छोड़ दिये जाने पर बाबा नरहरिदासजीने इनका पालन पोषण किया और ज्ञान-भक्तिकी शिक्षा-दीक्षा भी दी ।८२ श्रीआत्मानंदजी म.सा.को भी बचपनमें हार्दिक-वात्सल्यता और स्नेहमय सरोवर तुल्य माता-पिताने अतीव मज़बूरीमें बेटेके उज्जवल भविष्यके लिए, निरुपाय बनकर, अपने मित्र जोधाशाहजीके सुपुर्द किया था, जहाँ उन्हें बड़े इत्मिनान और गौरवयुक्त-योग्य परवरिश और धर्म-संस्कार एवं ज्ञानार्जनकी सुविधा मिली । फल स्वरूप किशोरावस्थामें ही वैराग्यमय संस्कारोंसे वासित होकर उन्होंने साधुवृत्ति स्वीकारी । वहाँ परभी ज्ञान-पिपासाको तृप्त करनेका यथायोग्य सुअवसर उन्होंने प्राप्त किया । अतः उनकी रचनाओंमें हमें वह बौद्धिक, दार्शनिक ज्ञान विहारका अनुभव मिलता है जो सच्चे ज्ञानीकी परख करवानेको पर्याप्त है । इस प्रकार तुलसीका वैराग्य मोह या दुःखगर्भित बना और श्रीआत्मानंदजी म.का ज्ञानगर्भित ।
परिणाम यह हुआ कि “कालांतरमें इन्द्रिय दमन करने, कुत्सित दरिद्रता झेलने, सर्वस्व त्याग देने और भक्ति रसका प्रचार करनेके बाद भी जब तुलसी पर धूर्त, कुसाज करनेवाला, दगाबाज, महादुष्ट और कुजातिका होनेके लांछन लगते हैं (कवितावली-७/१०६-१०८), तब वे तिलमिला उठते हैं...... उनके पौराणिक पुनर्जागरणके महान स्वप्न लड़खड़ा जाते हैं ।३ काशीके ठग और चोरोंसे सताये जाने पर वे अनुभव करते हैं कि "मेरा मन ऊँचा है, रुचि भी ऊँची है, लेकिन भाग्य अत्यन्त नीचा है । उन्हें आश्चर्य होता है कि भगवंतके नेकदिल भक्त होने पर भी उन्हें ये त्रिताप क्यों भोगने पड़ते हैं ?.... रामहनुमान-शंकरादिसे क्या नहीं हो सकता ? (ह.बा.-४४) फिर भी नजर पथ पर परिणाम शून्यता प्राप्त होनेसे “उनके जीवन पर्यंतके श्रद्धा-विश्वासके आगे एक गूढ प्रश्न चिह्न लग जाता है । इसके बाद तुलसीका व्यक्तित्व और कृतित्व ज्ञात नहीं होता है ।
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