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________________ तुलसीदासजीकी यह उलझन व्यक्तिगत नहीं समष्टिगत है: जिनके परमात्मा होते तो है सृष्टिसृष्टासर्वशक्तिमान-सर्वेसर्वा-कल्पना सृष्टिके इष्टदेव लेकिन उनके दुःख दर्दोके हर्ता नहीं बन सकते, उनकी वास्तविकतामें कोई चमत्कारी जादू नहीं कर सकते और उसे परिवर्तीत नहीं कर सकते हैं; क्योंकि जैन · दर्शनानुसार परमेश्वर सृष्टा नहीं केवल दृष्टा होता है । जैन दर्शनका कर्मवाद इन उलझी गुत्थियोंको सुलझाकर समझाता है कि प्रभुकी प्रीति और भक्ति कर्मनाशमें केवल निमित्त बनती है । ईश्वर तो वीतराग हैन किसीसे प्रेम न किसीसे द्वेष, न किसीको तारना न किसीको ताड़ना- वे कुछ भी नहीं करते हैं क्योंकि वे निरागी और कृतकृत्य हैं । श्रीआत्मानंदजी म.के जीवनमें भी अनेकबार कठिनाइयाँ आर्थी। आयुके अंतिम समयमें आहार-पानीके अप्राप्ति रूप संकटसे जीवलेवा बिमारीने आ घेरा, फिर भी उनकी आस्था पर कोई संकट नहीं आया | निश्चल-दृढ़ आस्थासे स्वस्थता-समभाव और अर्हनके प्रति शरणागत भावसे, सकल जीवराशिसे क्षमापना प्रार्थना और मैत्री भावनाकी उद्घोषणाके साथ अंतर्लीन-ध्यानस्थावस्थामें देहत्याग करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । इससे स्पष्ट है कि यदि साधक जैन दर्शनके प्रति ज्ञान गुम्फित श्रद्धा सम्पन्न है, तब साधनाकी स्थिरता-साधकभाव-सर्वदा अडोल रहता है । दुःख-दर्द-आधि-व्याधिउपाधि युक्त जीवनके अनहोने किसी भी मोड़ पर वह आत्माको धैर्य प्रदान करते हुए तन-मनके परितापको प्रशांत बना सकता है । दोनोंकी परमात्माकी प्रीति और भक्ति ही उन्हें संत कोटिमें स्थापित करनेको काबिल हुई है। दोनोंकी अनन्य सेवा उनके स्वामीसे किस प्रकार फल-प्राप्तिकी श्रद्धा प्रतिष्ठित करवाती है-दृष्टव्य हैं, रामशरणमें आकर ही 'सनाथ' होनावाले तुलसी, लक्ष्मी भी जिनकी प्रसन्नता चाहती है ऐसे रामको छोड़ कर अन्यत्र याचना करनेसे क्या होता है उसका वर्णन इन शब्दोमें करते हैं "....ताकी कहाय, कहें तुलसी, तू लजाहि न मांगत कूकुर कौर हि। जानकी जीवनको जन हवै जरि जाऊ सो जीह जो जांचत और हि।।८५ श्रीआत्मानंदजी म.सा. की भी अपने अक्षय भंड़ारी दीनानाथसे याचना श्रोतव्य हैं-यथा____ “प्रभुजी नहीं तो चिंतित दायक, लायक सौ न कहाय त्रिभुवन कल्पतरु में जाच्यो, कहो किम निष्फल थाय।८६ दोनोंकी अटल-अचल-अखंड आस्था- “दोष दुःख दारिद दलैया, दीनबंधु राम। __तुलसी न दूसरो दया निधान दुनीमें....(कवितावलि-७.२१) “जिन और न दाता कोय-अभय, अखेद, अभेद नो, जिनराया रे .... जिन, सगरे देव निहार, कौन हरे मुझ कैद नो, जिनराया रे .... त्रिभुवन पूरणचंद....” (चतु.जिनस्त.१०) मध्यकालीन वाड्.मयकी भक्तिधारामें प्रवाहित होनेवाले दो प्रवाह-निर्गुण और सगुणकी परस्पर पूरकता और प्रमाणिकताका आलेखन करते हुए 'दोहावलि में दोनोंका सम्बन्ध स्पष्ट किया है । “ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास। निरगुण कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास"-(२५१) “अंक अगुन अखर, सगुन समुझिअ उभय प्रकार। खोएँ राखें आपु भले, तुलसी चारु विचार।।"(२५२) अर्थात् निर्गुण ब्रह्म अंक (१,२,३) समान है और सगुण ब्रह्म अक्षर (शब्द) सदृश। अंकोंको शब्दोमें लिख देनेसे कभी भ्रमकी उपस्थिति या बध-घटकी संभावना नहीं रहती, प्रत्युत वह अधिक प्रमाणिक माना जा सकता है। इसी प्रकार श्रीआत्मानंदजी म.सा.भी पक्ष-कदाग्रहको छोड़कर संसार पार करवानेवाले आनंद रूपको धारण करनेकी सीख देते हैं “पक्ष कदाग्रह मूल नहीं तानियो, जानियो जैन मत सुध सारो। (148) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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