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________________ अवगुण मानी परिहरस्यो तो,आदि गुणी जग को कहिये जो गुणी जन तारे,तो तेरी अधिकता क्या कहिये?"७२ श्रीचिदानंदजी म. परमपद प्राप्तिके लिए स.ज्ञान रूप सुमति द्वारा प्रियचेतन (आत्मा) को परघर जानेवाले के हालात सुना कर आत्माको 'कुमति-नेह-निवारके' शिवपुरका राज्य लेनेके लिए अनुनय करते हैं . “पिया ! पर घर मत जावो रे... करी करुणा महाराज । कुल मरजाद लोपके रे, जे जन परघर जाय; तिणकुं उभयलोक सुण प्यारे, रंचक शोभा नाय... पिया... घर अपने वालम कहो रे,कोन वस्तुकी खोट। फोकट तद किम लीजिए प्यारे,शीश भरमकी पोट.. पिया..१७३ श्री आत्मानंदजी म.भी श्री ऋषभदेवको करबद्ध प्रार्थना करते हैं कि "आप मेरे मन मर्कट को कुछ सीख दो जिससे वह समताके रंगमें रंग जाय और आत्मकल्याणमें लग जाय - ___ “मन मर्कट कुं शिखो, निजघर आवेजी म्हारा राज रे कांइ ! समता रंग रंगावेजी म्हारा राज रे, रिखबजी थाने... मनरी..." इन सबके निष्कर्ष रूप आतम घटमें अनुभव ज्योत जगनेसे कुमताका संग तोड, सुमतासे सगाई जोड, प्रभुचरणोमें अचलत्व प्राप्तकर्ता आत्माका चित्रण श्रीचिदानंदजी म.करते हैं - “अनुभव ज्योति जगी है, हिये अमारे बे, कुमता कुटिल कहा अब करि हो, सुमता अमारी सगी छै मोह मिथ्यात्व निकट नवि आवे, भव परिणति ज्युं पगी छै 'चिदानंद' चित्त प्रभुके भजनमें, अनुपम अचल लगी छै....०५ श्रीआत्मनंदजी म.के 'सुज्ञानी ने भी इंद्रिय और चंचल-मन वशकरके, दुर्नय मिटाकर स्याद्वादामृत पिया है "तें तेरा रूप कुं पाया सुज्ञानी..... सुगुरु, सुदेव, सुधर्म रस भीनो, मिथ्या मत छिटकाया रे.... धार महाव्रत समरस लीनो, सुमति गुप्ति सुभाया रे... आत्मानंदी अजर अमर तुं सत्चिद् आनंद राया रे...."७६ श्रीरामभक्त संत तलसीदासजी और श्रीजिनचरणोपासक श्रीआत्मानंदजी म.सा.: ___ साहित्यिक कलाकार और भगवद् भक्तके दुहरे व्यक्तित्वके समवायी स्वामीके जीवनगत अनुभवाधारित सृजनराशिमें विविध जीवन दृष्टियोंकी धूपछाँव और विचारोंमें विकासशील परिवर्तनके संबंधका परिशीलन करने पर एकांगी आदर्शवादसे महाकाव्यात्मक भव्यता एवं आध्यात्मिक उन्मेषमें मर्यादा पुरुषोत्तमके रूप स्वरूपयुक्त महत् ललित रचनाओंके उपवनसे गुजरते गुजरते आदर्शसे यथार्थ, उल्लाससे गांभीर्य, महाकाव्यात्मकतासे वेणु प्रगीतात्मक- पद, कवित्त, सवैया रूप-वैयक्तिकताकी ओर चरण बढ़ानेवाले; समष्टिसे व्यक्तिकी ओर, 'मानस से 'कवितावली के वैयक्तिक, अंतर्भुक्त भावनाओं और अनुभावोंको प्ररूपित करनेवाले, लोकमंगलमय गीतोंको स्वर देकर यथार्थकी ठोस भूमि पर लाकर श्रीरामके उस मंगलकारी, नूतन बोधात्मक स्वरूपको गुंजरित करनेवाले परमपद दायक-मंगल विधायक-परमप्रेयान् नर-रामको उभारनेवाले संत, परमभक्त चूडामणिमहान काव्यकार, फिरभी सामान्यता लिए रामभक्तिके दैन्य-दास्य रूपधारी, सर्वांग संपूर्ण समर्पित रामचरण किंकर श्री तुलसीदासजीका व्यक्तित्व ताज्जुबमय विलक्षणता संजोये हुए है । जीवन तथ्यः- सामान्यतः आंतर्व्यक्तित्व, जितना ऊपर उठा हुआ होता है, व्यक्ति स्वनाम-कामसे उतना ही निर्लिप्त भाव रखने लगता है । उन भौतिक मोह-विजयियोंके जीवनवृत्त अतीतके गर्भरूप रहस्यमय बन जाते हैं । अतः उन तथ्योंके लिए हमें जनश्रुति आदि बहिर्साक्ष्य और वाङ्मयरूप अंतर्साक्ष्य पर निर्भर रहना होता है । गोस्वामीजीके बारेमें भी यही सत्य सामने आता है । इनके जन्मके लिए बाह्य प्रमाणाधारित बेनीमाधवदास और महात्मा रघुबरदासजी कृत उनकी जीवनी अनुसार उनका जन्म सं.१५५४ श्रा.शु.७ दर्शाया है। जबकि पं.रामगुलाम द्विवेदी, सरजोर्ज ग्रियर्सन एवं आ.रामचंद्र शुक्लादि विद्वानोंके अनुसार वे सं. १५८९में राजापुरमें जन्मे थे, जो अंतः साक्ष्याधारित अधिक युक्तियुक्त माना जा सकता है। लाला सीताराम, गौरीशंकर द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी और डॉ. रामदत्त भारद्वाज-'सोरों को उनका जन्म (146 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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