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________________ करते जो रिद्धि सिद्धि प्राप्त की है, उसे अगर धर्मकार्यमें न लगाकर जमीनमें गाड़ा या दुरुपयोग किया तो वह संपत्तिका उपभोग तो अन्य करेंगे और वे पाप तेरे सिर चढ़ेगें । मृत्यु पश्चात् दान देनेके लिए तुझे कोई न कहेगा । “रिद्धि सिद्धि ऐसे जरी, खोदके पातार धरी, करथी न दान करी हरि हर लहेगो..... जौलों मित आन पान तौलों कर कर दान, वसेहुं मसान फेर कौन दे दे कहेगो.....”६६ सामान्यतः प्रिय पदार्थ सुहावना और सुंदर ही लगता है । भक्त भी जब संसारकी अनित्यता, पुद्गलके खेल और आत्माकी अमरता परख लेता है. उसे शाश्वत परमतत्त्व परमात्मासे प्रीति हो जाती है और अपने प्रभुके अलौकिक रूप दर्शनसे नयनोंकी धन्यताके अनुभवके स्वर बरबस फूट पड़ते हैं-यथा “अंखियाँ सफल भई, अलि, निरखत नेमि जिणंद.... कैसे है नेमि जिणंद ?“पद्मासनमें शोभित, सुर-नर-इंद्रको मोहनेवाले, धुंघराली-अनुपम-अलख, मुख-पूनम चंद, नयन-कमलदल, शुकमुख नासा, अधर बिंब, दंतपंक्ति-कुंद कली, कम्बु ग्रीवा, भुजा कमलनाल, हृदय-विशाल थाल, कटि-केसरी, नाभि-सरोवर खंद..... “चिदानंद आनंद मूरति ए शिवा देवी नंद..."६७ श्रीआत्मानंदजी म.के श्रीविमलनाथ भगवंतके पद्मसम चरण-सरोज और नीके-नयणका वर्णन भी आकर्षक है“पद्म राग सम चरण करण अति सोहे नीके, तरुण अरुण सित नयण वयण अमृत रस नीके । वदन चंद ज्यूं सोम मदन सुख माने जीके, तुझ भक्ति विन नाथ रंग पतंग ज्यूं फीके-१६८ जब जीव पुद्गलकी माया त्यागता है तो अपने आप ही परमात्म भक्तिके चोलमजीठ रंगमें रंग जाता है । ऐसे रंगसे रंगी आत्मा मिट जाय-मरजाय-खत्म हो जाय, साथ नहीं छोड़ती । श्रीचिदानंदजी म.का दिल जिन चरणोंमें कैसा लगा है ! - “लाग्या नेह जिन चरण हमारा, जिम चकोर चित चंद पियारा... जैसे कुरंगके मनमें नाद (संगीत), मेघमें चातकका स्नेह, दीपक पर पतंगका हेत, जलमें मीनकी मग्नता, हंसका आधार मानसरोवर,चोरको अंधेरी रात,मोरकी थिरकन-गर्जता मेघ,केतकी पुष्पमें भ्रमर क्रेद रहता है वैसे ___ “जाका चित्त जिहां थिरता माने, ताका मरम तो तेहि ज जाने । जिन भक्ति हिमें ठान, चिदानंद मन आनंद आने ।"६९ । इसी तरह श्रीआत्मानंदजी म.भी श्रीअनंतनाथजी भ.से 'नीकी प्रीति' जोड़ते है और अपनी प्रीतको प्रकृति और व्यवहारके अनेक प्रतीकोंके साथ मूल्यांकित करके प्रभुको "सिर सेहरो' और 'हियडानो हार' बनाते “जिम पदमनी मन पिउ वसै, निर्धनीया हो मन धनकी प्रीत । मधुकर केतकी मन वसे, जिम साजन हो विरही जन चीत ॥ करसन मेघ अषाढ़ ज्यूं, निज वाछड़ हो सुरभि जिम प्रेम । साहिब अनंत जिणंद शुं, मुझ लागी हो, भक्ति मन तेम ॥...."७० कविराज श्रीचिदानंदजीम, परमात्म भक्तिमें ओतप्रोत, भगवंतसे ऐसी आत्मीयता प्राप्त कर लेते हैं कि जैसे स्वजन सदृश उपालम्भ देते हुए श्रीनेमिनाथजीके साथ विपत्तिमें साथ-सहयोग देनेवाली विरलताका संधान करते हैं - “मोह महा मद छाकथी, हुं छकियो हो, नहीं शुद्धि लगार, उचित सही इण अवसरे, सेवकनी हो, करवी संभाल । मोह गया जो तारशो, तिण वेला हो कहो कुण उपकार, सुख वेला सज्जन घणा, दुःखवेला हो विरला संसार ||" श्रीआत्मारामजी म. भी अंतर आशा विश्रामधाम श्रीपरमात्माको उत्तमजनकी रीति जताते हुए मुर्ख-बालकनिंदक-अपराधीको भवपार उतारकर, अजरामर पद प्रदान करनेके लिए श्रीआदिनाथको विनती करते हैं - "तुम बिन तारक कोई न दिसे,होवे तुमकुं क्युं कहिये,इह दिलमें ठानी, तारके सेवक, जगमें जस लहिये।.... (145) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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