SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मत करो, जिससे तुमारा और तुमारे श्रावकोंका कलयाण होवे ।१५. __ श्रीयशोविजयजी म.ने १२५ गाथाके . नयविचार गर्भित 'श्रीसिमंधर जिन स्तवन में शुद्ध देशना स्वरूप, आत्मतत्त्व और स्वरूप परिचय, निश्चय और व्यवहार नयकी जीवनमें समन्विति, द्रव्य और भावरूप प्रभु-भक्ति एवं जिन-पूजा द्वारा कर्म निर्जराका स्वरूप वर्णित करते हुए ग्यारहवी ढालमें गाया है । “कुमति इम सकल दूरे करी, धारिये धर्मनी रीत रे, हारिये नवि प्रभु बल थकी, पामिये जगतमां जीतरे.... स्वामी सिमंधरा ! तूं जयो..."(११४) “मुज़ होजो चित्त शुभभावथी, भव-भव ताहरी सेव रे, याचिये कोड़ि यतने करी, एह तुज आगले देव रे.... स्वामी सिमंधरा ! तूं जयो...."(१२४) उसी प्रकार श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने भी इस विषयमें अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किये हैं . “ज्ञान वचन पूजारस छायो, नाश कष्ट भविजन मन भायो यूं जिन मूरति रंग देख, दुरगति मेरी खुट गयी रे.... कुमति मेरी मिट गयी रे, आज श्री शंखेश्वर दरस देख...."२०. सिद्धान्त विचार रहस्य गर्भित ३५० गाथाके श्रीसिमंधर स्वामीजीके स्तवनमें श्रीयशोविजयजी म.सा.ने धर्मरूप रत्नत्रयीके योग्य पात्रके लक्षणोंको आलेखित करते हुए जो चित्र अंकित किया है तदन्तर्गत सूत्रविरोधी तीर्थोत्थापक अथवा जैन कुलमें जन्म होनेसे ही अपना उद्धार माननेवाले गुरुकुल त्यागकर स्वछंद उग्रविहार या प्रखर रत्नत्रयीके आराधक अथवा वर्तमानकालमें आगमानुसार 'गीतार्थोंके अभावमें निपुणमति एकल विहारी हो सकता है'-इसके आधार पर स्वच्छंद एकल विहारी: अकेले ज्ञानसे ही या केवल क्रियामें डूब जानेसे ही मोक्षप्राप्तिके समर्थक; केवल सैद्धान्तिक अहिंसा पालनमें ही धर्माराधना माननेवाले अथवा केवल 'सूत्रों को मानकर पंचांगी रूप 'अर्थ'के लोपक-स्थानकवासी आदि एकान्तवादियोंकी प्ररूपणा करके उन्हें हितशिक्षा देते हुए भावश्रावकके लक्षण दर्शाते हैं । “एकवीस गुण जेणे लहया, जे निज मर्यादामा रया तेह भावश्रावकता लहे, तस लक्षण ए प्रभु तुं कहे ।"- ढाल-१२.१. तत्पश्चात् भावसाधुके सात लक्षणका विवरण ढाल-१४में देते हुए उस पथके पथिक मुनिवरकी धन्यताकी बिरुदावली ललकारते हैं - “भोग पंक त्यजी ऊपर बेठो, पंकज परे जे न्यारा सिंह परे निज विक्रम शूरा, त्रिभुवन जन आधारा.... धन ते मुनिबरा रे, जे चाले समभावे..... ढाल - १५.२. और अंतमें शुद्ध निश्चयनय और शुद्धव्यवहार नय-ज्ञान और क्रियादिका स्वरूप एवं तपगच्छके पूर्व परंपरित 'निग्रंथादि' छ नामोंका इतिवृत्त फरमाते हुए अंतमें जिनशासनके प्रति बहुमानयुक्त समर्पण भाव प्रकट करते हुए लिखते हैं . ___ “आज जिनभाण तुज एक मुज शिर धरूं, अवरनी वाणी नवि काने सुणिये । सर्व दर्शन तणुं मूल तुज शासने, तेणे ते एक सुविवेक थुणिये ।"..... जैसे श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.ने भी फरमाया है कि - “जैन दर्शन रूपी समुद्रमें सर्व नदियाँ (सर्व दर्शन) समा जाते हैं, लेकिन किसी एक नदीमें समुद्र दृष्टिगत नहीं हो सकता ।" ठीक उसी प्रकार श्रीयशोविजयजी म.ने भी सर्व दर्शनोंका जैन दर्शनमें होना सिद्ध किया है । परिणामतः "तुज वचनराग सुखसागर हुं गणुं, सकल सुर मनुज सुख एक बिंदु" कहकर जिनशासनके सिद्धान्तोंकी सर्वोत्कृष्टता दर्शायी है । श्रीआत्मानंदजीम.को भी अन्य दर्शनोंसे इसलिए द्वेष नहीं है कि किसी भी दर्शनसे उनका पक्षपात नहीं है । अतः उनकी एकमात्र भावना है "तुझ किरपा भई नाथ एक मुझ भावना, जिन आज्ञा परमाण और नहीं गावना । - पक्षपात नहीं लेस द्वेष किनसुं करुं, ए ही स्वभाव जिणंद सदा मनमें धरूं ॥२१. D Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy