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समन्विता और अद्भूत पांडित्यके दर्शन करवाये हैं । (४) ये सर्वतोमुखी प्रतिभाके स्वामियोंने अपनी सृजन-सलीलामें साहित्यके योग और आचार, आगम और न्याय, धर्म और इतिहासादि नूतन-पुरातन सभी विषय-निर्झरोंको समाहित किया है । (५) हाँ, इतना अवश्य, स्पष्ट झलकता है कि, उपाध्यायजीका विशेष प्रदान गद्यापेक्षया पद्य (श्लोक बद्ध) कृतियोंमें हुआ है, जबकि आचार्य प्रवरश्रीने पद्यापेक्षया गद्यमें अधिक योगदान दिया है। जिसमें विशेष हेतुभूत तत्कालीन साहित्यिक गतिविधियोंकी प्रभावक पृष्ठभूमिको मान सकते हैं । (६) वादकलामें और न्यायशास्त्र निर्माणमें पूर्वपक्षके स्थापनमें (इतर दर्शनकी पूर्वभूमिका प्रस्तुत करते हुए) उस पक्षकारके साथ तादात्म्य भावसे जिस भाँति श्री यशोविजयजीम.सा. दृष्टिपथ पर आते हैं, उतनी प्रभावकता श्रीआत्मानंदजी म. प्रदर्शित नहीं कर सके हैं ! फिर भी उत्तरपक्षमें जैन दार्शनिक सिद्धान्त स्थापनके समय दोनोंका पांडित्य समान रूपसे झलकता है । (७) दोनोंने वेदांतियों, वैशेषिकों, नैयायिकों, मीमांसकों या बौद्धों आदि सभी एकान्तवादी दर्शनोंकी कड़ी समालोचना की है, तो उनके प्रमाणित सत्य सिद्धान्तोंकी प्रशस्ति करके जैन श्रमणोंकी गुणग्राहिता प्रकट की है । अतएव उनकी यह उद्घोषणा सर्वधर्मके प्रति विशाल एवं उदार दृष्टिबिंदुको उद्घोषित करती प्रत्यक्ष होती है ।
_ 'पक्षपातो न मे वीरो, न द्वेषः कपिलादिषु
युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥१८. अर्थात् “जैनागमोंका स्वीकार और परसिद्धान्तोंका इन्कार हम किसी रागद्वेषके कारण नहीं प्रत्युत युक्तियुक्त प्रतिपादनके बल पर करते हैं । अतः उसमें राग-द्वेषका तनिक इंगिताकार भी दृष्टिगत न होगा।” (८) श्रीयशोविजयजी म.सा.ने पंडितजन और प्राकृतजनोंके लिए एक ही विषयकी भिन्न भिन्न भाषामें विभिन्न कृति रचना द्वारा उद्भावना की है, जबकि श्रीआत्मानंदजी म.ने समन्वयी दृष्टिकोणको नयनपटल पर स्थापित करते हुए सर्वके लिए एक ही कृतिमें, अनेक विषयोंको अनूठे सामंजस्यसे सजाया है-यथालूंपकादि मूर्तिपूजा विरोधियोंके करतूतोंसे दोनोंका पुण्यप्रकोप भडक उठा था, अतः श्रीयशोविजयजी म.ने 'प्रतिमा शतक' और 'प्रतिमा पूजन न्याय' जैसी अकाट्य ग्रन्थ-रचनासे शासन रखवाली करनेकी पूर्ण कोशिश की; तथा कुमति मदन गालन रूप “१५० गाथाके श्री महावीर स्वामीके स्तवन' में प्राकृतजनोंके लिए 'प्रतिमा पूजन' की चार निक्षेपासे सिद्धि करते हुए प्रथमढालमें ही आगमिक प्रमाण पेश किया है
___“श्री अनुयोग दुवारे भाख्या, चार निक्षेपा सार.......
चार सत्य..... ठाणांगे निरधार रे जिनजी !"(२) और श्री आवश्यक सूत्रानुसार - “चौविसत्थयमांहि निक्षेपा, नाम-द्रव्य दोय भावु,
काउसग्ग आलावे ठवणा, भाव ते सघले ल्याई रे जिनजी....."(४) द्वितीयढालमें भी -"तुझ आणा मुज मन वसी, जिहां जिन प्रतिमा सुविचार लाल रे,
रायपसेणी सूत्रमा, सूरयाभ तणो अधिकार लाल रे......” (९) इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र, जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति, औपपातिक सूत्र, ज्ञाता सूत्र, भगवती सूत्र, प्रथम और षष्ठम् अंगादि अनेक आंगोपांगके संदर्भ प्रस्तुत किये हैं । उसी प्रकार श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने 'सम्यक्त्व शलयोद्धार' ग्रन्थमें श्रीजिन-प्रतिमा पूजनकी आगमाधारित अकाट्य तर्कोसे सिद्धि करके जैन समाज पर महदुपकार किया है, साथ ही साथ मूर्तिपूजा उत्थापकोंकी कड़ी आलोचना करके उनको खामोश किया है और उनके आत्म-कल्याणका मार्ग चिह्नित किया है -इस ग्रन्थमें भी प्राय: जिन प्रतिमा संबंधी सविस्तर विवेचन शास्त्रानुसार किया है । इसवास्ते स्थानकवासी-ढूंढक लोगोंको बहुत नम्रतासे विनती की जाती है कि हे प्रिय मित्रो ! जैन शास्त्रोंके प्रमाणोंसे, प्राचीन लेखोंके प्रमाणोंसे, प्राचीन जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओंके प्रमाणोंसे, अन्य मतियोंके प्रमाणोंसे तथा अंग्रेज विद्वानोंके प्रमाणोंसे-इत्यादि अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध होता है कि प्रत्येक जैनी जिन प्रतिमाको मानते और वंदना नमस्कार, पूजा-सेवा-भक्ति करते थे, तो फेर तुम लोग किस वास्ते हठ पकड़के जिनप्रतिमाका निषेध करते हो ? इस वास्ते हठको छोड़कर श्रावकोंको श्रीजिन-प्रतिमा पूजनेका निषेध
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