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________________ परंपरा थी और श्री विजयप्रभ सुरीश्वरजी म.सा. उस समय आचार्यपदारुढ थे, अतः योग्यता होने पर भी उन्हें आचार्य पद प्राप्त नहीं हुआ था ।१७ (५) श्री यशोविजय जी म. जन्मजात जैन थे, अतः उन्हें जैनत्वके संस्कार स्वतः प्राप्त थे जबकि श्रीआत्मानंदजी म. ब्रह्म-क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे जिनकी परवरिश स्थानकवासी परिवेशमें हुई, अतः कठिन प्रयास और स्वबुद्धि प्रतिभाके परिपाक रूप शुद्ध संस्कार प्राप्ति हुई (६) श्री यशोविजयजी म.ने सरस्वती वरदानसे वाद-साहित्य सृजन-व्याख्यानादि क्षेत्रमें सिद्धि प्राप्त की और जिनशासनकी महती प्रभावना की जबकि इन सभीके लिए श्री आत्मानंदजीम ने कर्तव्यनिष्ठा और निरंतर-कठोर परिश्रमसे निष्पन्न स्वपुण्योदयके सामर्थ्यके सहारे स्वर्णिम सिद्धि हासिल की (७) फिर भी श्रीमद् यशोविजयजी म. का शिष्य-प्रशिष्य परिवार अति विशाल नहीं था, अतः उनकी सर्व सिद्ध प्रवृत्तियाँ उन तक ही सिमित रहीं । यहाँ तककी उनकी साहित्यिक कृतियोंमेंसे अधिकतर कृतियाँ वर्तमानमें समाजके दृष्टिपथसे ओझल हैं । जबकि श्री आत्मानंदजी म.सा.का विशाल शिष्य परिवार द्वारा उनके देहविलय पश्चात् उनके उदात्त साहित्य सर्जनको एवं उनके जीवनकार्यों रूप मिशनको उनके बाद भी कार्यान्वित रखा गया उनका परिष्कार एवं परिवर्धन हुआ जिनके सुस्वादु फल अद्यावधि जैन समाजको मिल रहा है। प्रभावकोंके हृदयमें साम्यताः-इन वैषम्योंके साथ साथ उन दोनों महानुभावोंमें जो साम्यता परिलक्षित होती है, उसका कुछ दिग्दर्शन इस प्रकार करवाया जा सकता है -(१) दोनों शासनसेवीयोंने बाल्यकालमें दीक्षा लेते ही ज्ञानार्णवमें अवगाहन करना ही अपना जीवन लक्ष्य बनाया था । (२) दोनों सत्यके समर्थ समर्थक-सत्यपथके पथिक थे । सत्यके लिए दोनोंने बहुत कुछ सहन किया । जिसके अंतर्गत श्रीयशोविजयजी म.सा.ने श्रीपं.सत्यविजयजी गणिजीके साथ मिलकर जो क्रियोद्धारका कार्य किया वह झलकता है, तो श्रीआत्मानंदजी म.ने सत्यपथकी पहचान होनेके पश्चात् अपने साथियोंके साथ उसी सत्यराह-संविज्ञ साधुताके साधक बननेका सौभाग्य जीवनकी अन्तिम बीसीमें प्राप्त करके जिनशासनको गौरवान्वित और उन्नत मस्तिष्क बनानेके भगीरथ प्रयत्न किये । (३) दोनोंकी अद्वितीय तर्कबद्ध एवं वैज्ञानिक और विश्लेषणात्मक व्याख्यान शैलीकी मधुर सुवासने धूम मचा दी थी: जो उनमें स्थित, पर्षदाको पागल बना देनेवाली-भुवनमोहिनी गिराका करिश्मा था । एक बार उनके प्रवचनोंका अमीय पान करनेवालोंके कर्णपटलको अन्यत्र कहींसे तृप्ति न होती थी । (४) दोनों ही जिनशासनकी आन थे और शान थे जिन्होंने जिनशासन सेवामें ही सर्वस्व समर्पित कर दिया था । (4) दोनों महानवादी और तार्किकशिरोमणि थे । श्रीयशोविजयजी म.सा.ने चर्चा सभामें विद्वान संन्यासीको परास्त किया था तो निश्चयवादी बनारसीदासजी आदिको चूप किया था; वैसे ही श्री आत्मानंदजी म.सा.ने भी निश्चयवादी श्रीशांतिसागरजी और कोरे अध्यात्मवादी हुक्ममुनि आदि अनेक जैन-जनेतरोंसे लोहा लेकर उनकी बजती बंसरीको मूक किया था। साहित्यिक तुलनाः-इस प्रकार उनके अनूठे व्यक्तित्वके सत्यं-शिव-सुंदरम् सरोवर सलीलमें स्नान करके अब हम उनके साहित्य दर्पण समक्ष नज़र फैलायें, जहाँ उन वाग्देवीके सपूतोंकी कलम द्वारा सृजित साहित्य शृंगारका असबाब आलमको भूषित कर रहा है । ज्ञान-दर्शन-चारित्रकी कल्लोलिनीके कगार पर शासन प्रभावनाके थाल भरकर सर्वको आकर्षित कर रही दोनोंकी मधुर लेखिनी जैन साहित्यको मुखरित कर रही है । (१) दोनोंने उनमें विविध विषयक वाङ्मयके रूपमें इन्द्रधनुषी आभाको चित्रित करनेका आयास किया है। फिर भी दोनोंने प्रमुखता न्यायको दी है । यही कारण है कि एक 'न्यायाचार्य' और 'न्याय विशारद' बने हैं तो एकको 'न्यायाम्भोनिधि' और 'स्व-पर सिद्धान्तोदधि पारगामी की प्रख्याति प्राप्त हुई है। (२) वाचकवर्य श्रीउमास्वातिजी म., श्रीसिद्धसेन दिवाकरजी म., श्रीमल्लवादी, सूरिजी म., श्रीजिनभद्र क्षमाश्रमणजी म., श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म., श्रीहेमचंद्राचार्यजी म. आदि अपने अनेक पुरोगामी आचार्य भगवंतोंके प्रति दोनोंने खुलकर अपनी भक्ति प्रदर्शित की है । (३) दोनोंने अपने ग्रंथोंमें पतंजलिके योगशास्त्र, और भगवद्गीता या महाभारत जैसे जैनेतर ग्रन्थोंके संदर्भ प्रस्तुत करके अपनी दार्शनिक (129) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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