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प्राप्त होती है-यथा-पिता 'नारायण श्रेष्ठि' और माता 'सौभाग दे' के जीवनोद्यानके पुंडरिक पुष्प-सम-बाल जसवंतने माता पिताके संस्कार-सुधाका पान करके, सदगुरुओंकी अमीय कृपावृष्टिमें स्नान करके और जन्मांतरके ज्ञानावरणीय कर्मके अद्भुत क्षयोपशमके कारण सरस्वतीके वरदानकी त्रिवेणी संगमसे पवित्र प्रखरता प्राप्त करानेवाली दिव्य दीक्षा आठ सालकी लघुवयमें ही पाटणमें स्वीकार करके वि.सं. १६८८में श्रीनयविजयजी म.सा.का शिष्यत्व अंगीकार किया । इस प्रकार विरागका चिराग प्रकट होने पर अब एक ही परिवारका प्रकाश दीप, जसवंत (अनगढ पत्थर) से पावन प्रातिभ प्रतिमा बननेका सौभाग्य प्राप्त करते हुए विश्वोद्योत करनेवाले श्रीयशोविजयजी म.सा.के गौरवको प्राप्त हुए ।
जगद्गुरु श्री हीर सुरीश्वरजी म.सा.के विशद ज्ञानप्रवाहमें, उनके परवर्तीकालमें जो क्षीणता आयी थी, उसे श्रीमद् यशोविजयजी म.सा.ने पुनः वेगवान बनाया । गंभीर-सर्वतोमुखी-क्षिप्रग्राही-अलौकिक ऋतंभरा प्रज्ञाके स्वामी श्रीयशोविजयजी म.सा. दस-बारह वर्षोमें तो गुजरातमें लब्ध विविध विषयक वाङ्मयके अनेक आकर ग्रन्थराशिके पारगामी बन गये । उस ज्ञान-प्रासादके कलशरूप 'अवधान कला की सिद्धि भी उस सरस्वती पुत्र-कुमारश्रमणने अतयल्प प्रयासमें सिद्ध कर ली । उसी ज्ञानालोक परिवेशमें थोड़े परवर्तीकालकी ओर दृष्टिक्षेप करनेसे अप्रतीम मेधाके स्वामी श्रीआत्मानंदजी म.सा.की जलहल ज्योति हमारे नेत्रयुगलको प्रकाशित करती है, जिन्होंने केवल छ वर्षके दीक्षापर्यायमें ही स्थानकवासी मान्य सकलागम पारगामीत्व प्राप्त करके विद्वज्जगत्में अपनी श्रेष्ठताको सिद्ध किया था । तत्पश्चात पाँच-छ वर्ष पर्यंत उसके रहस्यकोआगमके हार्दको प्राप्त करनेके लिए उन्होंने व्याकरण-न्याय षड्दर्शनादिका अभ्यास करते हुए अनेक विद्वान एवं पंड़ितोंके संपर्क करके चर्चा रूप विचार-विमर्श एवं अध्ययन-मनन किया था । दोनोंकी तुल्यातुल्यता:-(१) श्रीयशोविजयजी म.के प्रकृष्ट पुण्य प्रतापसे उनको ज्ञान-संपादनके लिए कहीं बाहर भटकना नहीं पड़ा था जबकि श्रीआत्मानंदजीम.ने दीक्षा लेनेके पश्चात् ज्ञानार्जनके लिए पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थानादिके कोने कोनेको छान लिया था; और अत्यन्त परिश्रम पूर्वक खतं और धैर्यसे ज्ञान प्राप्ति की । (२) श्रीयशोविजयजीको नैसर्गिक रूपसे ही सत्य राहकी प्राप्ति हुई थी जबकि श्रीआत्मानंदजी म.को स्वयंके प्रज्ञाघटमें, ज्ञानाध्ययन-मनन-चिंतन रूप रवैयेसे बिलोड़न करते करते तारतम्य रूप नवनीत प्राप्त हुआ था । (३) श्रीयशोविजयजी म.को कदम कदम पर सर्वत्र-सर्वदा-गुरुदेव श्रीनयविजयजी म., धनजी सूरा जैसे श्रावकादि सर्वकी ओरसे उष्मापूर्ण सहयोग अपने आप मिलता रहा, जबकि श्रीआत्मानंदजी म.को सर्वत्र-सर्वदा विरोधका मुकाबला करते करते आगे बढ़ना पड़ा फलतः श्रीयशोविजयजी म. षड्दर्शनकी (न्याय शास्त्रयुक्त) सर्वोच्च शिक्षा प्राप्तिके लिए श्रीनयविजयजी म.के साथ काशी और आग्रा तक पहुँच सके और अपनी बुद्धि प्रतिभाके चमकार प्रकट कर सके । जबकि, श्रीआत्मारामजी म.को आग्रामें अध्ययन करवानेवाले पंडितवर्य श्रीरतनचंद्रजी म.का योग प्राप्त हुआ, उसी वक्त उस अमूल्य लाभसे वंचित होकर गुर्वाज्ञा प्राप्त होते ही विहार करना पड़ा जिससे ज्ञानप्राप्तिका पूर्ण रूपेण लाभ न मिल सका । (४) श्रीयशोविजयजी म.के मुख्य गच्छनायक श्रीदेवसूरिजी म.ने उनके गुरु श्री नयविजयजीम.को उनके उत्कृष्ट जीवनकी स्वस्थ परिपालनाका आदेश दिया था, जिससे उनके ज्ञान-यज्ञको शीघ्र सफलता प्राप्त हुई जबकि श्रीआत्मानंदजी म.के मुख्य नायक पूज्य अमरिसंहजीने उनकी विकास राहमें कदम कदम पर रोड़े अटकानेका ही कार्य किया था ।
इन समस्त परिस्थितियोंने श्रीआत्मारामजीकी शक्तिके योग्य विकासमें रुकावटें डाली अतः योग्यता होने पर भी उनका योग्य विकास न हो सका । उनका जीवन संघर्षकी अगनज्वालाओंसे घिरा रहा था। शायद वे ही अगन ज्वालाओंने उनके स्वर्णिम व्यक्तित्वकी कसौटी करके उन्हें अत्यधिक शुद्धता और पवित्रताकी चमक अर्पित की । परिणाम स्वरूप संविज्ञ शाखाके ढाई सौ वर्षसे रिक्त पड़े हुए आचार्य पदके गौरवको गौरवान्वित बनानेका उत्कृष्ट लाभ तत्कालीन भारतीय जैन समाजने उन्हें दिया; जो महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजीको न मिल सका था ऐसा भी माना जाता है कि उनके समयमें एक ही आचार्य गच्छाधिपतिकी
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