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________________ भक्त जब भगवंतकी भक्तिमें तदाकर हो जाता है तो उस श्री जिनेश्वर देवकी कृपावर्षासे सर्व विटंबनायें और आपदायें दूर हो जाती है एवं संपदायें अपने आप आन मिलती हैं । दोनों विनित भक्त उस कृपासिंधुके दो बिंदुके लिए विनंती करते है . श्री यशोविजयजी म. पाप प्रनाशकको कहते हैं - ___“तुं बसे जो प्रभु हर्षभर हियडले, तो सकल पापना बंध तूटे उगते गगन सूरयतणे मंडले, दह दिशि जिम तिमिर पड़ल फूटे"-(ढाल१७-३) श्रीआत्मानंदजी म.जीको सांवले सलुणे शंखेश्वरकी शरण ग्रहण करके अपेक्षित है “हम तो काल पंचम वस आये, तुमारो शरण जिनेश नाम..... मोरी बैयां तो पकर शंखेश शाम.....१२२. दोनोंकी समर्पित भक्तिमें विनती करते समयकी दृढ़ श्रद्धा भी दर्शनीय है जिससे भगवंत मानो उन भक्तोंकी मुट्ठीमें बंद है । पू. श्रीयशोविजयजी म.का विश्वास “आज जिनराज मुझ कार्य सिद्धां सवे, विनती माहरी चित्त धारी मार्ग जो में लह्यो तुज कृपा रस थकी, तो हुई संपदा प्रकट सारी ।"(ढाल १७-१) श्रीआत्मारामजी म. भी अखूट आस्थाके साथ अपने भवभंजन भगवंत श्रीमहावीर स्वामीकी चरणरेणुमें लोटते हुए अपना दृढ़ निश्चय प्रकट करते हुए गुनगुनाते हैं ___“चरणकमलकी रेणुमें रे, हुं लोटूं जगदीश; अंहि न छोडूं तब लगे रे, न करे निज सम ईश। आतमराम तूं माहरो रे,त्रिशलानंदन वीर,ज्ञान दिवाकर जग जयोरे,भंजन भवदुःख भीर जिणंद शुं प्रीत लागी रे.२३ सर्व आस्तिक दर्शनोंमें भगवद् भक्तिके विशिष्ट निरूपण हुए हैं, जिसके दो प्रकार हैं-एक सकाम और दूसरी निष्काम । प्रथममें भक्तिके बदले में भक्तके दिलमें कुछ न कुछ प्राप्त करनेकी अभिलाषा होती है जबकि द्वितीय भगवद्गीतानुसार निष्काम भक्ति, बिना फलकी अपेक्षा केवल कर्म करना है । लेकिन धैर्यसे परिक्षण करें तब यह स्पष्ट होता है कि बिना उद्देश्यके कार्य हो ही नहीं सकता । अतः जैन दर्शनानुसार भगवद्-भक्तिके फल स्वरूप 'कुछ' तो प्राप्त करना ही है, जिससे अनन्त दुःखमय भवभ्रमण नष्ट हो जाय और शाश्वत सुख प्राप्त हो जाय और जिसकी प्राप्त्यानन्तर आत्मा आप ही निष्काम बन जाये । अतः श्रीयशोविजयजी म.सा. अपने चतुर सुजाण साहिब चंद्रप्रभ स्वामीको कहते हैं ____“सेवा जाणो दासनी रे, देश्यो फल निर्वाण....॥२४ इसी भावको श्रीआत्मानंदजी म. आनंददायक श्रीमहावीर स्वामी समक्ष प्रकट करते हुए गाते हैं - "रंभा-रमण, सुरिंद, पदचक्री, वांछं हुं नहीं निकामी । आतमराम आनंदरस पूरण, दो मुक्ति सुखधामी....."२५. दोनोंके समग्र साहित्यकी साम्यता और वैषम्यताके अनुशीलनमें अग्रगामी होते हुए हमें यह अनुभव होता है कि श्रीयशोविजयजी म.सा.ने अनेक ढालों युक्त बृहत् स्तवन रचनाओंमें शासनके मूल्यवान-उच्च और गुढ़ सिद्धान्तोंकों कैद किया है, तो श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने उन्हींको फूटकल-छोटे-छोटे स्तवनोंमें और विशेषतया गद्य साहित्य द्वारा अपनी अछूती विशिष्ट शैलीसे प्रकट किया है। श्री आत्मानंदजी म.ने पूजाके विविध प्रकारों और अन्य आराधनामय विषयों पर आधारित पूजा साहित्य एवं पदादिकी रचना करके महत् लोकोपकार किया है । दोनोंने अपनी पद्यकृतियोंको विशिष्ट राग-रागिणीसे सजाकर सूरमंदिरके साजोंमें संगीतकी फूंक भरी है, जिन्हें गाते या सुनते हुए हृदय वीणाके तार झंकृत हो उठते हैं; भावुक हृदय उस बहते हुए भाव प्रवाहों पर डोलने लगता है-उसमें डूबने लगता है । उनके पद्यकी एक और विशिष्टता यह है कि काव्यके अंगरूप अलंकार आयोजना और प्रतीकनियोजनाका निर्वाह स्वस्थतापूर्वक करके उसमें एक अनूठी थिरकन-चैतन्य प्रकट किया है । श्रीयशोविजयजी म.सा.के पद्य कहीं कहीं पर कथनात्मक प्रस्तार और पदार्थ-विशेषणादिकी सूचिमात्र रूपमें या कभी उपमा दृष्टान्तकी पुनरुक्तियोंके कारण बोझिल या नीरस बने हैं लेकिन उनमें निहित वैविध्यपूर्ण विशालता, भावार्द्र (132 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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