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सर्वथा भयपरिक्षय इति निरूपचरितमेतत्।"
यहाँ अद्वैतमतवादियोंकी मान्य मुक्ति (परम ब्रह्ममें लयत्व) का खंडन करके मोक्ष स्वरूपकी तात्विकताका विश्लेषण किया गया है । उसी अद्वैतवादियोंकी मुक्तिके विषयमें श्रीआत्मानंदजी म.सा. द्वारा की गई प्ररूपणा दृष्टव्य है-“परब्रह्म, सब दोष और गुणोंसे रहित मोक्ष स्वरूप है । ..... तथा फेर दयानंदजी लिखते हैं, मुक्तिस्थान परमेश्वर ही है अन्य कोई मुक्तिस्थान नहीं है । जैसे आकाश सर्वव्यापी है तैसे ही ईश्वर मुक्तिस्थान रूप सर्व जगें व्यापक है, तिसमें मुक्त लोग स्वच्छंदतासे चलते-उडते फिरते है, तो हम पूछते हैं कि मुक्तलोग सर्वकामसे पूर्ण हैं तो उनको देश-देशांतर जानेसे क्या प्रयोनन ?५
इस प्रकार दोनोंकी लेखन शैलीके वैषम्यका प्रमुख कारण तत्कालीन परिस्थितियाँ हैं । श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.का समय ही विद्वत्ता और पांडित्यका था जबकि श्रीआत्मानंदजी म.सा.के समयका साहित्य जनसामान्यका प्रतिनिधित्व करता था; अतः श्री हरिभद्रजी म.की रचनायें तत्कालीन विद्वानोंकी प्राज्ञताकी कसौटी बन सकी थीं और श्रीआत्मानंदजीकी कृतियाँ भी लोकभोग्य होनेसे अत्यन्त प्रसिद्धि प्राप्त कर सकी हैं । श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.के साहित्यमें आगमिक, न्याय विषयक, तात्त्विक, यौगिक, आचार प्ररूपक, उपदेश प्रधान, भक्तिपरक, कथा साहित्य और अन्य प्रकीर्णक प्रकरणादि विभिन्न साहित्यिक विधाओंके दर्शन होते हैं; जबकि श्रीआत्मानंदजी म.की. कृतियोंमें भी आगमिक, न्याय विषयक (तत्कालीन मिथ्यामतोंका युक्तियुक्त-नय प्रमाणाधारित तर्कबद्ध खंडन-मंडन निरूपण), ऐतिहासिक, खगोलिक, भौगोलिक, भूस्तरशास्त्रीय, विश्व-स्तरीय जीवविज्ञान-कर्मविज्ञान, गुणस्थानक (श्रेणियाँ) आदिके स्वरूप, ध्यान विषयक, आचार विषयक
। प्ररूपणायें वर्तमान यगकी अपेक्षासे वर्णित हैं । श्रीआत्मानंदजीके साहित्यमें तत्कालीन समाजकी आवश्यकतानुसार जीवोपयोगी और जीवनोपयोगी तत्त्व और पदार्थोका प्ररूपण ही प्रमुखतः हुआ है अतः कथासाहित्यका अवतरण नहीं हुआ । यद्यपि उनके प्रवचनोमें उन विषयोंको सरलतासे प्रस्तुत करने हेतु अनेक कथाओंका उल्लेख होता था, जो उनके पद्यबद्ध पूजा साहित्यसे विदित होता है ।
(१) श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.के 'धर्मसंग्रहणी' ग्रन्थमें भव्य वाद-प्रतिवाद (संवादशैली) द्वारा जिनमतकी विशिष्टता, सर्वांग सम्पूर्णता और सर्वथा शुद्धताका निरूपण हुआ है। वैसे ही श्री जिनमत प्ररूपणाका मंडन श्रीआत्मानंदजी म.के 'अज्ञान तिमिर भास्कर'. 'सम्यक्त्व शल्योद्धार', 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' आदि ग्रन्थोंमें वेदादिके संदर्भसे अभेद्य तर्कबद्धतासे किया गया है । (२) श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजीके 'उपदेशपद में जिनाज्ञा और गुर्वाज्ञाका महत्त्व, भवनिर्वेद, मोक्षाभिलाषा-आदिका; और 'पंचवस्तुक'में साधु जीवनकी योग्यताउत्सर्ग, अपवाद मार्ग-साधुचर्या-आदिकाः एवं 'अष्टक में सुदेव-सुगुरु-सुधर्म योग्य विविध बत्तीस विषयोंका वर्णन बत्तीस अष्टकोंमें किया गया है । इन विषयोंका प्रायः वैसा ही स्वरूप श्री आत्मानंदजी म.सा.के 'जैन तत्त्वादर्श', 'तत्त्व निर्णय प्रासाद', 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर' आदि ग्रन्थोंमें हमें प्राप्त होता है । (३) 'षोडशक में प्रणिधानादि पांच अंग और जिनबिम्ब-निर्माण एवं प्रतिष्ठापनादिके विधान तथा 'विंशति विंशिकामें लोकधर्मसे मोक्षपर्यंत मार्गमें आत्म संशोधनके राहका निरूपणः 'पंचाशक'में सम्यक्त्व-बारहव्रत-द्रव्य और भावस्तव एवं श्रावकके दैनंदिन जीवन व्यवहार; 'धर्मबिन्दु'में गृहस्थके सामान्य और विशेष धर्म व साधुके सापेक्ष
और निरपेक्ष यतिधर्म, आत्म साधनाका क्रमिक मार्गादिका जैसा वर्णन और विश्लेषण किया है, ठीक उसी प्रकार पूर्वाचार्योंके ग्रन्थाधारित श्रीआत्मानंदजी म.ने भी जैन तत्त्वादर्श, तत्त्व निर्णय प्रासाद, जैनधर्मका स्वरूपादिमें किया है । अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शन समुच्चय, अनेकान्तवाद प्रवेश, लोकतत्त्व निर्णय जैसी कृतियोंमें प्ररूपित न्याय विषयक सैद्धान्तिक प्ररूपणाओंका व्यवहार रूप हमें श्रीआत्मानंदजीकी वादिभंजक शैलीमें 'अज्ञान तिमिर भास्कर', 'चिकागो प्रश्नोत्तर' आदिमें प्राप्त होता है । साथ ही 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' ग्रन्थान्तर्गत चतुर्थ एवं पंचम स्तम्भमें 'लोकतत्त्व निर्णय'का बालावबोध प्रस्तुत करके श्रीहरिभद्रजीके चरण चिह्नों पर चलनेवाले अनुगामीके रूपमें स्वयंको सिद्ध किया है । महत्तरा याकिनी सूनुके 'ललित विस्तरा में निरूपित अरिहंत स्वरूपके दर्शन और सांख्य-वैदिक-बौद्धादि एकान्तिक दर्शनोंके खंडनका भास
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