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लिखित प्रस्तावनानुसार १४४४ ग्रन्थके रचयिता-विक्रम साहित्य सर्जक श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजीके १०२ मान्य ग्रन्थके नाम अद्यावधि प्राप्त हुए हैं, जिनमें उनके द्वारा दी गई टिप्पणी अनुसार कई ग्रन्थोंकी विशेष जानकारी प्राप्तव्य हैं और कई ग्रन्थ अभी अनिर्णित अवस्थामें हैं । अतः उन्होंने 'समरादित्य महाकथा के गुर्जरानुवाद, अनुवादक आ.श्री हेमसागर सूरिजी, ई.स.१९६६-के ग्रन्थके पुरोवचनमें इस महान साहित्यकारकी पचास अधिकृत कृतियोंका जिक्र किया है, जिनमें आठ आगमिक साहित्य विषयक और शेष अनागमिक (स्वतंत्र रचना, वृत्ति, टीका या अवचूरिके रूपमें) प्रकरण स्वरूप कृतियोंके नामोल्लेख किये हैं । श्रीहरिभद्र
सूरिजीके साहित्य पर प्रकाश डालते हुए श्रीविजय भुवनभानु सूरि म.के उद्गार अनुशीलनीय हैं -“उन्होंने जिनागम शास्त्रोंका अध्ययन करके ऐसे एकसे बढ़कर एक शास्त्रोंका निर्माण किया हैं, कि, अगर आज वे सर्व शास्त्र लभ्य होते तो हम केवल उनके ही शास्त्र साहित्यसे ज्ञानार्णव बन जाते ! वर्तमानमें उपलब्ध शास्त्र हैं, वे भी उन्हें महपुरुषकी विरल विभूतिकी कक्षामें रखनेके काबिल हैं ..... उनके मौलिक शास्त्र रचनाके अतिरिक्त आगम विवेचनाके वचन भी टंकशाली-प्रभावशाली माने जाते हैं, अत: उनके वचनोंका परवर्तियोंने संदर्भके रूपमें उपयोग किया है ।१३
इस प्रकार श्री आत्मानंदजी म.सा.ने भी जो साहित्यिक रचनायें की, उनके लिए सूरिशतक काव्य-१३ में लिखा है . “उपदेश ही देते न थे, वे ग्रन्थकर्ता भी रहे ।
भर्ता रहे बुध वृन्दके, त्रयताप हर्ता भी रहे ॥" इनकी रचनाओमें खंडन-मंडनात्मक शैली प्रयोग प्राप्त होते हैं, जिसमें वाद-प्रतिवादके तर्कमें उग्रता भी झलकती है । वादीके तर्कको तोड़-मरोड़कर फैंक देनेमें मस्त शूरवीरकी अहिंसक तर्कशक्ति परमतवादीके साथ समभाव और सौजन्यपूर्ण व्यवहार-वर्तनकी झाँकि दिखाकर उदार सत्याग्रहीकी सामर्थ्यका परिचय दिखा जाती है । वे लिखते हैं. परतीर्थियोंके साथ उचित व्यवहार करें, उनको उचित दान दें, उनका मान-सम्मान करें । परमतवाला किसी कष्टमें पड़ा हों, तब उसका उद्धार करें और उसके उचित-आवश्यक कार्यको पूरा कर देवें ।११३०
उनके पद्योंके विषयमें मोतीचंदजी कापड़ियाका मंतव्य है, “उनके पद्योमें असाधारण वाक्य रचना शक्ति-साहजिक (प्राकृतिक) सरलता, मधुर उन्माद, आंतरवेदना और साध्य सामीप्य छलकते हैं जिससे कहीं पर भी लघु पार्थिवता या रसक्षति रूप अधोगामित्व आने नहीं पाया ।१४
श्री आत्मानंदजीके ग्रन्थ प्रायः स्वतंत्र रचना रूप ही है । 'लोकतत्त्व निर्णय', 'महादेव स्तोत्र', और 'द्वात्रिशिका' के बालावबोध एवं 'गायत्रीमंत्र' का सार्थ विवेचनादि उनके 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' ग्रन्थान्तर्गत तथा 'ध्यान शतक' आधारित कुछ-सवैया इकतीसा-छंदमें लिखे गये पद्य उनके 'बृहत् नवतत्त्व संग्रह' ग्रन्थान्तर्गत लिखे गये हैं, अर्थात् ये रचनायें भी उनके स्वतंत्र ग्रन्थके एक अध्याय या प्रकरणके रूपमें हैं । इन रचनाओमें तेरह कृतियाँ गद्यमें और सात रचनायें-(पूजा-प्रकारकी) एवं अन्य पद-स्तवन-सज्झायादि फूटकल रचनायें पद्यमें हैं । इनके अतिरिक्त 'सन्मति तर्क' आदि अनेक न्याय विषयक एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थोंके संशोधन भी उन्होंने किये हैं, कई ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ करवायीं-ये सारा साहित्य उनके ज्ञानभंडारोमें सुरक्षित था जो आज भी श्री विजयवल्लभ शिक्षणनिधि-दिल्हीमें सुरक्षित रखा गया है ।
दोनों मुनिपुंगवोंके ग्रन्थोंके प्रतिपादित विषय पूर्णतः धार्मिक और दार्शनिक ही है । श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.की भाषा शैली, विद्वद्भोग्य, सूत्रशैली (समासशैली) युक्त है, जबकि श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने इस क्लिष्ट और नीरस विषयको अत्यन्त सरल-सुबोध और बुद्धिगम्य शैलीमें प्ररूपित करके इसे सहजबालमानस युक्त बना दिया है ।-यथा-'ललित विस्तरा' ग्रन्थमें 'शक्रस्तव' सूत्रके 'जिअभयाणं' पदकी विशिष्ट व्याखा करते हुए श्रीहरिभद्रसूरि म. लिखते हैं - तत्र हि क्षेत्रज्ञाः परम ब्रह्मविस्फुलिंगकल्पाः, तेषां च ततः पृथग्भावे न ब्रह्मसत्तात् एव कश्चिदपरो हेतुरिति सा तल्लयेऽपि तथाविधैव । तद्वदेव भूयः पृथक्त्वापत्तिः। एवं हि भूयो भवभावेन न सर्वथा जितभयत्वम् । सहज भवभाव व्यवच्छित्तौ तु तत्तत्स्वभावतया भवत्युक्तवत् शक्तिरूपेणापि
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