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और तारक तत्त्वज्ञान-जिनोपदिष्ट शुद्ध क्रिया, प्रविधियाँ और अनुष्ठानादिको देखकर मचल गये थे । श्री शत्रुजय (पालीताना) तीर्थाधिराज श्री आदिश्वरजीकी अनुपमेय, जाज्वल्यमान, तेजस्वी प्रतिमाके प्रथम दर्शनसे ही उनकी अंतरात्मासे आनंदोदधि बहने लगा-जिसमें निश्चयात्मक निश्चलता थी-“अब तो पार भये हम साधो, श्री सिद्धाचल दर्श करी रे ...."
दोनों विद्वत्ताके साथ विनय-विवेककी मूर्ति थे । दोनों ही जन्मसे जैनेतर होने परभी उन सूरिपुंगवोंद्वारा जिनशासनकी महती प्रभावना हुई । उनके समयमें जिनशासनका सूर्य पूर्णरूपेण-देदीप्यमान बनकर धर्मजगतको प्रकाशित कर रहा था । दोनोंने तत्कालीन वादियोंको आगमिक एवं सैद्धान्तिक प्रमाणोंके आधार पर अकाट्य तार्किक शक्तिसे जीतकर जिनशासनको गौरवान्वित बनाया था । श्री हरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.ने जिस वादशक्तिसे बौद्ध राजाको अभिभूत करते हुए प्रतिबोधित करके जैनधर्मी बनाया, वैसी ही अजेयवादिताके बलसे श्री आत्मानंदजी म.सा.ने बीकानेर दरबार, लिम्बड़ीके राजा, आर्यसमाजी मतमें दृढ़ आस्थावान् जोधपुर नरेश और उनके भाई आदिको एवं अन्य अनेक जैनेतर कौमोंके सदस्योंको जैनजैनेतर धर्मशास्त्रोंके संदर्भयुक्त चर्चासे प्रभावित किया था । दोनोंकी साहित्यिक प्रतिभाको प्रकटकर्ता परवर्तीयों द्वारा अनुमोदनीय पुष्प परागका परिमल सर्वत्र प्रसारित हुआ हैं - यथा
“भई सिरि हरि भहस्स, सूरिणो जस्स भुवण रंगम्मि । वाणी विसट्ट रस-भाव-मंथरा नच्चाए सुइरं ॥१० “यथास्थितार्हन्मतवस्तुवेदिने, निराकृताशेष विपक्षवादिने ।
विदग्धमध्यास्थनृमूढताऽरये, नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्र सूरये ॥"-मुनि यक्षदेव “येषां गिरं समुपजीव्य सुसिद्ध विद्यामस्मीन् सुखेन गहनेऽपि पथि प्रवृत्तः ।" श्रीआत्मानंदजी म.की भी देश-विदेशके जैन-जनेतर विद्वानों द्वारा की गई प्रशस्तियाँ इस शोध प्रबन्धमें अन्यत्र स्थान स्थान पर उद्धृत की गई हैं, अतः पुनरावृत्ति उचित नहीं । आचार्यदयकी विषम विलक्षणतायें:-उपरोक्त अनेक समस्याओंके साथ दोनोंकी कुछ वैषम्य विशिष्टतायें भी दृष्टव्य है । (१) श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा. एकान्तवादी-जैनेतर (वैदिक) दर्शनके पक्षपाती होनेसे जैनधर्मजैनोंके विरोधी थे और श्रीआत्मारामजी लौका-लवजी द्वारा प्रवर्तीत जैनाभास मतमें दीक्षित, प्रतिमा-पूजनके विरोधी थे (२) अन्योंकों पांडित्यसे पराजित करनेवाले श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.को शिष्योंके कारण प्रकर्ष प्रकोप भावने परास्त करके भयंकर मानसिक हिंसा करनेमें प्रवृत्त कियाः जबकि श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने क्रोधादि कषायोंको क्लान्त कर दिया था, अतः आभ्यन्तर शत्रुजय आचार्यश्री कैसे भी विकट कष्टपरिषद-उपसर्ग आने पर भी क्षमा-ढालसे सम्यक् रूपसे सह लेते थे । “तेओश्रीना आत्मामां कोई दिवस उग्रता के क्रोध विगेरेनी रेखा पण देखाती न हती ।१२ (३) श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.का साहित्य संस्कृत
और प्राकृतमें रचा गया है और श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने अपना साहित्य तत्कालीन लोकभाषा हिन्दीमें प्रस्तुत किया है । (४) श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.ने शिष्य संततिकी मृत्युके शोक निवारण हेतु ज्ञान (ग्रन्थ) संततिको प्रधानता दी, और विक्रम साहित्य सृजन करके अमर संतति निर्माण द्वारा स्व-पर कल्याण कियाः जबकि श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने साहित्य संतति और विशाल शिष्य समुदाय-दोनोंके सहयोगसे युग परिवर्तनकारी सीमातीत समाज सेवा की, जिनमें स्व-पर कल्याण भावना निहित ही थी। (५) श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी म.सा.ने आगम शास्त्रों पर वृत्तियाँ रची हैं जिनमें अनुयोगद्वार सूत्र, आवश्यक सूत्र, जीवाजीवाभिगमसूत्र, दसवैकालिक सूत्र, नंदीसूत्र, पिंडनियुक्ति, प्रज्ञापना सूत्र आदि मुख्य हैं। श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने पूर्वाचार्य रचित ग्रन्थों पर बालावबोध लिखे हैं जिनमें 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' ग्रन्थान्तर्गत श्रीहरिभद्र सूरि कृत 'लोकतत्त्वनिर्णय' श्रीहेमचंद्राचार्य विरचित 'महादेव स्तोत्र' और 'वीर द्वात्रिंशिका याने अयोग व्यवच्छेद' आदि प्रमुख रूपसे हैं । साहित्यविदोंके साहित्यका निरीक्षण:-'षोडशक प्रकरण-सद्धर्म देशना'- ई.स.१९४९-ग्रन्थ की श्री हीरालाल कापडिया
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